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________________ २२६ ] वृहद्र्व्यसंग्रहः [ गाथा ५७ हे भगवन् ! जिनदीक्षादानानन्तरं भरतचक्रिणः कियति काले केवलज्ञानं जातमिति श्रीवीरवर्द्धमानस्वामितीर्थकरपरमदेवसमवसरणमध्ये श्रेणिकमहाराजेन पृष्टे सति गौतमस्वामी आह–'पञ्चमुष्टिभिरुत्पाट्य त्रोव्यन् बंधस्थितीन् कचान् । लोचानंतरमेवापद्राजन् श्रेणिक केवलम् । १ ।' अत्राह शिष्यः । अद्य काले ध्यानं नास्ति । कस्मादित चेत्-उत्तमसंहननाभावाद्दशचतुर्दशपूर्वगतश्रुतज्ञानाभावाच्च । अत्र परिहारः शुक्लध्यानं नास्ति धर्मध्यानमस्तीति । तथाचोक्तं मोक्षप्राभृते श्रीकुन्दकुन्दाचार्य देवैः ‘भरहे दुस्समकाले धम्मज्माणं हवेइ णाणिस्स । तं अप्पसहावठिए ण हु मण्णइ सो दु अण्णाणी ॥१॥ अजवि तिरयणसुद्धा अप्पा ज्झाऊण लहइ इंदनं । लोयंतियदेवचं तत्थ चुदा णिव्वुदि जंति ।२। तथैव तत्वानुशासनगन्थे चोक्त 'अत्रेदानी निषेधन्ति शुक्लध्यानं जिनोत्तमाः। धर्मध्यानं पुनः प्राहुः श्रेणीभ्यां प्राग्विवर्तिनाम् ।१।' यथोक्तमुत्तमसंहननाभावात्तदुत्सर्गवचनम् । अपवादव्याख्यानेन, पुनरुपशमक्षपकश्रेण्योः शुक्लथ्यानं भवति, तच्चोत्तमसंहननेनैव, अपूर्वगुणस्थानादधस्तनेषु गुणस्थानेषु धर्मध्यानं, विधान का कथन करते हैं। श्री वर्द्धमान तीर्थंकर परमदेव के समवसरण में श्रेणिक महाराज ने प्रश्न किया कि हे भगवन् ! भरतचक्रवर्ती को जिनदीक्षा लेने के पीछे कितने समय में केवलज्ञान हुआ ? श्री गौतम गणधरदेव ने उत्तर दिया “हे श्रेणिक ! पंच-मुष्टियों से बालों को उखाड़कर (केश लोंच करके) कर्मबंध की स्थिति तोड़ते हुए, केशलोंच के अनन्तर ही भरतचक्रवर्ती ने केवलज्ञान प्राप्त कर लिया । १।" शिष्य का प्रश्न-इस पंचमकाल में ध्यान नहीं है । क्योंकि इस काल में उत्तमसंहनन (बज्रऋषभ नाराच संहनन) का अभाव है तथा दश एवं चौदहपूर्व श्रुतज्ञान भी नहीं पाया जाता ? उत्तर-इस समय शुक्लध्यान नहीं है परन्तु धर्मध्यान है। श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने मोक्षप्राभृत में कहा है "भरतक्षेत्र विषय दुःषमा नामक पंचमकाल में ज्ञानी जीव के धर्मध्यान होय है । यह धर्मध्यान आत्म-स्वभाव में स्थित के होय है। जो यह नहीं मानता, वह अज्ञानी है। १।" इस समय भी जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्ररूप रत्नत्रय से शुद्ध जीव आत्मा का ध्यान करके इन्द्रपद अथवा लोकांतिकदेव पद को प्राप्त होते हैं और वहाँ से चयकर नरदेह ग्रहण करके मोक्ष को जाते हैं । २" ऐसा ही तत्त्वानुशासन ग्रंथ में भी कहा है-"इस समय ('चमकाल) में जिनेन्द्रदेव शुक्लध्यान का निषेध करते हैं; किन्तु श्रेणी से पूर्व में होने वाले धर्मध्यान का अस्तित्व बतलाया है । १।" तथा जो यह कहा है कि 'इस काल में उत्तम संहनन का अभाव है इस कारण ध्यान नहीं होता' सो यह उत्सर्ग वचन है । अपवादरूप व्याख्यान से तो, उपशमश्रेणी तथा क्षपकश्रेणी में शुक्लध्यान होता है और वह उत्तमसंहनन से ही होता है; किन्तु अपूर्वकरण (८३) गुणस्थान से नीचे के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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