SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 246
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ २२५ गाथा ५७.] तृतीयोऽधिकारः लक्षणस्वशुद्धात्मसम्वित्तिरूपनिर्विकल्पध्याने स्वीकृतान्येव, न च त्यक्तानि । प्रसिद्धमहाव्रतानि कथमेकदेशरूपाणि जातानि ? इति चेत्तदुच्यते-जीवघातनिवृत्ती सत्यामपि जीवरक्षणे प्रवृत्तिरस्ति । तथैवासत्यवचनपरिहारेऽपि सत्यवचनप्रवृत्तिरस्ति । तथैव चादत्तादानपरिहारेऽपि दत्तादाने प्रवृत्तिरस्तीत्यायेकदेशप्रवृत्त्यपेक्षया देशबूतानि तेषामेकदेशवतानां त्रिगुप्तिलक्षणनिर्विकल्पसमाधिकाले त्यागः; न च समस्तशुभाशुभनिवृत्तिलक्षणस्य निश्चयव्रतस्येति । त्यागः कोऽर्थः १ यथैव हिंसादिरूपाबूतेषु निवृत्तिस्तथैकदेशवतेष्वपि । कस्मादिति चेत् १ त्रिगुप्तावस्थायां प्रवृत्तिनिवृत्तिरूपविकल्पस्य स्वयमेवावकाशो नास्ति । अथवा वस्तुतस्तदेव निश्चयवतम् । कस्मात्-सर्वनिवृत्तित्वादिति । योऽपि घटिकाद्वयेन मोक्षं गतो भरतश्चक्री सोऽपि जिनदीक्षां गृहीत्वा विषयकषायनिवृत्तिरूपं क्षणमात्रं वतपरिणामं कृत्वा पश्चाच्छुद्धोपयोगत्वरूपरत्नत्रयात्मके निश्चयवताभिधाने वीतरागसामायिकसंज्ञे निर्विकल्पसमाधौ स्थित्वा केवलज्ञानं लब्धवानिति । परं किन्तु तस्य स्तोककालवाल्लोका वतपरिणामं न जानन्तीति । तदेव भरतस्य दीक्षाविधानं कथ्यते । अशुभ की निवृत्तिरूप निश्चयव्रत ग्रहण किये हैं, उनका त्याग नहीं किया है। प्रश्न-प्रसिद्ध अहिसादि महाव्रत एकदेश रूप व्रत कैसे हो गये ? उत्तर-अहिंसा महावत में यद्यपि जीवों के घात से निवृत्ति है; तथापि जीवों की रक्षा करने में प्रवृत्ति है । इसी प्रकार सत्य महावत में यद्यपि असत्य वचन का त्याग है, तो भी सत्य वचन में प्रवृत्ति है। अचौर्यमहावत में यद्यपि बिना दिए हुए पदार्थ के ग्रहण का त्याग है, तो भी दिए हुए पदार्थों (पीछी, कमण्डल शास्त्र) के ग्रहण करने में प्रवृत्ति है । इत्यादि एकदेश प्रवृत्ति की अपेक्षा से ये पांचों महावत देशवत है । इन एकदेश रूप वतों का, त्रिगुप्ति स्वरूप निर्विकल्प समाधि-काल में त्याग है। किन्तु समस्त शुभ-अशुभ की निवृत्तिरूप निश्चयवत का त्याग नहीं है । प्रश्न त्याग शब्द का क्या अर्थ है ? उत्तर-जैसे हिंसा आदि पाँच अवतों की निवृत्ति है, उसी प्रकार अहिंसा आदि पंचमहावतरूप एकदेशवतों की भी निवृत्ति है, यहाँ त्याग शब्द का यह अर्थ है। शंका-इन एकदशवतों का त्याग किस कारण होता है ? उत्तर-त्रिगुप्तिरुप अवस्था में प्रवृत्ति तथा निवृत्तिरूप विकल्प का स्वयं स्थान नहीं है । (ध्यान में कोई विकल्प नहीं होता। अहिंसादिक महावत विकल्परूप हैं अतः वे ध्यान में नहीं रह सकते)। अथवा वास्तव में वह निर्विकल्प ध्यान ही निश्चयवत है क्योंकि उसमें पूर्ण निवृत्ति है। दीक्षा के बाद दो घड़ी (४८ मिनट) काल में ही भरतचक्रवर्ती ने जो मोक्ष प्राप्त किया है, उन्होंने भी जिन-दीक्षा ग्रहण करके, थोड़े काल तक विषय-कषाय की निवृत्तिरूप व्रत का परिणाम करके, तदनन्तर शुद्धोपयोगरूप रत्नत्रयमयी निश्चयवत नामक वीतरागसामायिक संज्ञा वाले निर्विकल्प ध्यान में स्थित होकर केवलज्ञान को प्राप्त किया है । परंतु व्रतपरिणाम के स्तोक काल के कारण लोग श्री भरत जी के व्रतपरिणाम को नहीं जानते । अब उन ही भरत जी के दीक्षा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy