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________________ गाथा ५७ २२४ ] वृहद्रव्यसंग्रहः पञ्चैते ध्यानहेतवः । १।" भगवन् ! ध्यानं तावन्मोक्षमार्गभूतम् । मोक्षार्थिना पुरुषेण पुण्यबन्धकारणत्वाव्रतानि त्याज्यानि भवन्ति, भवद्भिः पुनानसामग्रीकारणानि तप:श्रुतव्रतानि व्याख्यातानि, तत् कथं घटत इति ? तत्रोत्तरं दीयते-व्रतान्येव केवलानि त्याज्यान्येव न, किन्तु पापबन्धकारणानि हिंसादिविकल्परूपाणि यान्यव्रतानि तान्यपि त्याज्यानि । तथाचोक्तम् पूज्यपादस्वामिभिः-"अपुण्यमव्रतैः पुण्यं व्रतैर्मोक्षस्तयोर्व्ययः । अव्रतानीव मोक्षार्थी व्रतान्यपि ततस्त्यजेत् ॥१॥ किंवव्रतानि पूर्व परित्यज्य ततश्च बूतेषु तन्निष्ठो भूत्वा निर्विकल्पसमाधिरूपं परमात्मपदं प्राप्य पश्चादेकदेशवतान्यपि त्यजति । तदप्युक्तम् तैरेव-'अवतानि परित्यज्य बूतेषु परिनिष्ठितः । त्यजेत्तान्यपि संप्राप्य परमं पदमात्मनः । १।' अयं तु विशेषः-व्यवहाररूपाणि यानि प्रसिद्धान्येकदेशवतानि तानि त्यक्तानि । यानि पुनः सर्वशुभाशुभनिवृत्तिरूपाणि निश्चयत्तानि तानि त्रिगुप्ति पुरुष ध्याता (ध्यान करने वाला) होता है । तप, श्रत तथा वृत ही ध्यान की सामग्री है । सो ही कहा है 'पैराग्य, तत्त्वों का ज्ञान, परिग्रहों का त्याग, साम्यभाव और परीषहों का जीतना ये पांच ध्यान के कारण हैं । १।' शंका-भगवान् ! ध्यान तो मोक्ष का कारण है, मोक्ष चाहनेवाले पुरुष को पुण्यबंध के कारण होने से व्रत त्यागने योग्य है (वृतों से पुण्य कर्म का बंध होता है; पुण्यबंध संसार का कारण है; इस कारण मोक्षार्थी व्रतों का त्याग करता है), किन्तु आपने तप, श्रुत और व्रतों को ध्यान की सामग्री बतलाया है । सो यह आपका कथन कैसे सिद्ध होता है ? उत्तरकेवल व्रत ही त्यागने योग्य नहीं है, किन्तु पापबंध के कारण हिंसा आदि अव्रत भी त्याज्य हैं । सो ही श्री पूज्यपादस्वामी ने कहा है 'अव्रतों से पाप का बंध और व्रतों से पुण्य का बंध होता है, पाप तथा पुण्य इन दोनों का नाश होना मोक्ष है, इस कारण मोक्षार्थी पुरुष जैसे अवतों का त्याग करता है, वैसे ही अहिंसादि व्रतों का भी त्याग करे । १।' परन्तु मोक्षार्थी पुरुष पहले अव्रतों का त्याग करके पश्चात् व्रतों को धारण करके निर्विकल्प-समाधि (ध्यान) रूप आत्मा के परम पद को प्राप्त होकर तदनन्तर एकदेश व्रतों का भी त्याग कर देता है। यह भी श्री पूज्यपादस्वामी ने समाधिकशतक में कहा है, 'मोक्ष चाहने वाला पुरुष अवतों का त्याग करके व्रतों में स्थित होकर परमात्मपद प्राप्त करे और परमपद पाकर उन व्रतों का भी त्याग करे। १।' विशेष यह है जो व्यवहाररूप से प्रसिद्ध एकदेशवत हैं, ध्यान में उनका त्याग किया है; किन्तु समस्त त्रिगुप्तिरूप स्व-शुद्ध-आत्म-अनुभवरूप निर्विकल्प ध्यान में समस्त शुभ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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