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________________ गाथा ५७] तृतीयोऽधिकारः [२२३ तपःश्रुतव्रतवान् चेता ध्यानरथधुरन्धरः भवति यस्मात् । तस्मात् तस्त्रिकनिरताः तल्लब्ध्यै सदा भवत ॥ ५७ ॥ व्याख्या-'तवसुदवदवं चेदा ज्झाणरहधुरंधरो हवे जम्हा' तपश्रुतव्रतवानात्मा चेतयिता ध्यानरथस्य धुरन्धरो समर्थो भवति, 'जम्हा' यस्मात् 'तम्हा तत्तियणिरदा तल्लद्धीए सदा होह' तस्मात् कारणात् तपश्रुतव्रतानां संवन्धेन यत् त्रितयं तत् त्रितये रताः सर्वकाले भवत हे भव्याः । किमर्थ १ तस्य ध्यानस्य लब्धिस्तल्लब्धिस्तदर्थमिति । तथाहि-अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशभेदेन बाह्य षड्विधं, तथैव प्रायश्चित्तविनयवैय्यावृत्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानभेदेनाऽभ्यन्तरमपि षड्विधं चेति द्वादशविधं तपः । तेनैव साध्यं शुद्धात्मस्वरूपे प्रतपनं विजयनं निश्चयतपश्च । तथैवाचाराराधनादिद्रव्यश्रुतं, तदाधारेणोत्पन्नं निर्विकारस्वसंवेदनज्ञानरूपं भावश्रुतं च । तथैव च हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहाणां द्रव्यभावरूपाणां परिहरणं व्रतपश्चकं चेति । एवमुक्तलक्षणतपःश्रुतव्रतसहितो ध्याता पुरुषो भवति । इयमेव ध्यानसामग्री चेति । तथाचोक्तम्- "वैराग्यं तत्वविज्ञानं नैन्थ्यं समचित्तता। परीषहजयश्चेति वृत्त्यर्थ :-'तवसुदवदवं चेदा झाणरहधुरंधरो हवे जम्हा' क्योंकि तप, श्रुत और व्रतधारी आत्मा ध्यानरूपी रथ की धुरा को धारण करने के लिये समर्थ होता है । 'तम्हा तत्तियणिरदा तल्लद्धीए सदा होह' हे भव्यो ! इस कारण से तप, श्रुत और व्रत, इन तीन में सदा लीन हो जाओ । किस लिये ? उस ध्यान की प्राप्ति के लिये । विशेष वर्णन-१. अनशन (उपवास करना), २. अवमौदर्य (कम भोजन करना), ३. वृत्तिपरिसंख्यान (अटपटी पाखड़ी करके भोजन करने जाना), ४. रस परित्याग (दूध, दही, घी, तेल, खांड व नमक, इन छह रसों में से एक दो आदि रसों का त्याग करना ), ५. विविक्तशय्यासन (निर्जन और एकान्त स्थल में शयन करना, रहना, बैठना), ६. कायक्लेश (आत्मशुद्धि के लिये आतापन योग आदि करना), यह छह प्रकार का बाह्य तप; प्रायश्चित १, विनय २, नैयावृत्य ३, स्वाध्याय ४, व्युत्सर्ग (बाह्य अभ्यन्तर उपधि का त्याग) ५ और ध्यान ६, यह छह प्रकार का अन्तरङ्ग तप; ऐसे बाह्य तथा आभ्यन्तररूप बारह प्रकार का (व्यवहार) तप है। उसी (व्यवहार) तप से सिद्ध होने योग्य निज-शुद्ध-आत्म-स्वरूप में प्रतपन अर्थात् विजय करने रूप निश्चय तप है । इसी प्रकार आचार व आराधना आदि द्रव्यश्रुत है तथा उस द्रव्य-श्रुत के आधार से उत्पन्न व विकार रहित निज-शुद्ध-स्वसंवेदनरूप ज्ञान, भावश्रु त है । तथा हिंसा, अनृत, स्तेय (चोरी), अब्रह्म (कुशील) और परिग्रह, इनका द्रव्य व भावरूप से त्याग करना, पांच व्रत हैं। ऐसे पूर्वोक्त तप, श्रुत और व्रत से सहित * 'वशचित्तता' इत्यपि पाठः । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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