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________________ २२२ ] वृहद्रव्यसंग्रहः [गाथा ५७ समयसारः, स एवाध्यात्मसारः, तदेव समतादिनिश्चयषडावश्यकस्वरूपं, तदेवाभेदरत्नत्रयस्वरूपं, तदेव वीतरागसामायिक, तदेव परमशरणोत्तममङ्गलं, तदेव केवलज्ञानोत्पत्तिकारणं, तदेव सकलकर्मक्षयकारणं, सैव निश्चयचतुर्विधासधना, सैव परमात्मभावना, सैव शुद्धात्मभावनोत्पन्नसुखानुभूतिरूपपरमकला, सेव दिव्यकला, तदेव परमाद्व तं, तदेव परमामृतपरमधर्मध्यानं, तदेव शुक्लल्यानं, तदेव सगादिविकल्पशून्यध्यानं, तदेव निष्कलध्यानं, तदेव परमस्वास्थ्यं, तदेव परमवीतरागत्वं, तदेव परमसाम्यं, तदेव परमैकत्वं, तदेव परमभेदज्ञानं, स एव परमसमरसीभावः, इत्यादि समस्तरागादिविकल्पोपाधिरहितपरमालादैकसुखलक्षणध्यानरूपस्य निश्चयमोक्षमार्गस्य वाचकान्यन्यान्यपि पर्यायनामानि विज्ञेयानि भवन्ति परमात्मतत्वविद्भिरिति ॥ ५६ ॥ ___ अतः परं यद्यपि पूर्व बहुधा भणितं ध्यात्पुरुषलक्षणं ध्यानसामग्री च तथापि चूलिकोपसंहाररूपेण पुनरप्याख्याति : सवसुदवदवं चेदा ज्झाणरहधुरंधरो हवे जम्हा । तम्हा तत्तियणिरदा तल्लद्धीए सदा होह ॥ ५७ ॥ तप-वीर्यरूप निश्चय पंचाचार है, वही समयसार है; वह ही अध्यात्मसार है। वही समता आदि निश्चय-षट-आवश्यक स्वरूप है, वह ही अभेद-रत्नत्रय-स्वरूप है, वह ही वीतराग सामायिक है, वह ही परमशरणरूप उत्तम मंगल है, वही केवल-ज्ञानोत्पत्ति का कारण है, वही समस्त कर्मों के क्षय का कारण है, वही निश्चय-दर्शन-ज्ञान-चरित्र-तप-आराधनास्वरूप है, वही परमात्मा-भावनारूप है, वहो शुद्धात्म-भावना से उत्पन्न सुख की अनुभूतिरूप परमकला है, वही दिव्य-कला है, वही परम-अढत है. वही अमृतस्वरूप परम-धर्मध्यान है, वही शुक्लध्यान है, वही राग आदि विकल्परहित ध्यान है, वही निष्कल ध्यान है, वही परम-स्वास्थ्य है, वही परम-वीतरागता है, वही परम-समता है, वही परम-एकत्व है, वही परम-भेदज्ञान है, वही परम-समरसी-भाव है; इत्यादि समस्त रागादि विकल्पउपाधि रहित, परमश्राह्लाद एक-सुख-लक्षणमयी ध्यान-स्वरूप निश्चय मोक्षमार्ग को कहनेवाले अन्य बहुत से पर्यायवाची नाम परमात्मतत्त्व ज्ञानियों के द्वारा जानने योग्य होते हैं ॥५६॥ यद्यपि पहिले ध्यान करने वाले पुरुष का लक्षण और ध्यान की सामग्री का बहु प्रकार से वर्णन कर चुके हैं, फिर भी चूलिका तथा उपसंहार रूप से ध्याता पुरुष और ध्यानसामग्री को इसके आगे कहते हैं : गाथार्थ :-क्योंकि तप, श्रुत और व्रत का धारक आत्मा ध्यान-रूपी रथ की धुरी को धारण करने वाला होता है, इस कारण हे भव्य पुरुषो ! तुम उस ध्यान की प्राप्ति के लिये निरंतर तप, श्रुत और व्रत में तत्पर होवो ॥ ५७ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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