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________________ गाथा ५७ २२८ ] वृहद्र्व्यसंग्रहः ऋषयो भण्यन्ते । तेषां चोत्कर्षेण चतुर्दशपूर्वादिश्रुतं भवति, जघन्येन पुनः पञ्चसमितित्रिगुप्तिमात्रमेवेति । अथ मतं-मोक्षार्थ ध्यानं क्रियते न चाद्य काले मोक्षोऽस्ति; ध्यानेन किं प्रयोजनम् ? नैवं, अद्य कालेऽपि परम्परया मोक्षोऽस्ति । कथमिति चेत् ? स्वशुद्धात्मभावनावलेन संसारस्थितिं स्तोकां कृत्वा देवलोकं गच्छति, तस्मादागत्य मनुष्यभवे रत्नत्रयभावनां लब्ध्वा शीघ्र मोक्षं गच्छतीति । येऽपि भरतसगररामपाण्डवादयो मोक्षं गतास्तेपि पूर्वभवे भेदाभेदरत्नत्रयभावनया संसारस्थितिं स्तोकां कृत्वा पश्चान्मोक्षं गताः । तद्भवे सर्वेषां मोक्षो भवतीति नियमो नास्ति । एवमुक्तप्रकारेण अल्पश्रुतेनापि ध्यानं भवतीति ज्ञात्वा किं कर्तव्यम् – “वधवन्धच्छेदादद्वेषाद्रागाच्न परकलत्रादः। आध्यानमपध्यानं शामति जिनशासने विशदाः ।। संकल्पकल्पतरुसंश्रयणात्वदीयं चेतो निमज्जति मनोरथसागरेऽस्मिन् । तत्रार्थतस्तव चकास्ति न किंचनापि पक्षेऽपरं भवति कल्मषसंश्रयस्य । २। दौर्विध्यदग्धमनसोऽन्तरुपात्तमुक्तेश्चित्तं यथोल्लसति ते स्फुरितोत्तरङ्गम् । धाम्नि स्फुरेद्यदि तथाहि-अंतर्मुहूर्त में जो केवलज्ञान को प्राप्त करते हैं वे क्षीणकषाय गुणस्थान में रहने वाले 'निग्रंथ' नामक ऋपि कहलाते हैं और उनके उत्कृष्टता से ग्यारह अंग चौदह पूर्वा पर्यंत श्रुतज्ञान होता है, जघन्य से पाँच समिति तीन गुप्ति मात्र ही श्रुतज्ञान होता है। शंका-मोक्ष के लिये ध्यान किया जाता है और इस पञ्चम काल में मोक्ष होता नहीं, अतः ध्यान करने से क्या प्रयोजन ? ऐसा नहीं है, क्योंकि इस पंचमकाल में भी परंपरा से मोक्ष है । प्रश्न-परम्परा से मोक्ष कैसे है ? उत्तर-(ध्यानी पुरुप) निज-शुद्ध-यात्मभावना के बल से संसार-स्थिति को अल्प करके मार्ग में जाते हैं। कहां से आकर मनुष्य भना में रत्नत्रय की भावना को प्राप्त होकर शीव्र ही मोक्ष जाते हैं। जो भरतचक्रवर्ती, सगरचक्रवर्ती, रामचंद्र, ए.एडन (युधिष्टिर, अर्जुन, भीम ) आदि मोक्ष गये हैं, वे भी पूर्वाभव में भेदाभेदरत्नत्रय की भावना से संसार-स्थिति को स्तोक करके फिर भोज्ञ गये । उसी भन में सब को मोक्ष हो जाती है. ऐसा नियम नहीं। उपरोक्त कथनानुसार अल्पश्रुतज्ञान से भी ध्यान होता है । यह जानकर क्या करना चाहिये ? 'द्वप से किसी को मारने, बांधने व अंग काटने आदि का और राग से परस्त्री आदि का जो चिंतान करना है, निर्मल बुद्धि के धारक आचार्य जिनमत में उसको अपध्यान कहते हैं। १। हे जीव ! संकल्परूपी कल्प वृक्ष का आश्रय करने से तेरा चंचल चित्त इस मनोरथरूपी सागर में डूब जाता है, जैसे उन संकल्पों में जीव का वास्ता में कुछ प्रयोजन नहीं सधता, प्रत्युत कलुषता से समागम करने वालों का अर्थात् कलुषित चित्त वालों का अकल्याण होता है ।२। जिस प्रकार दुर्भाग्य से दुःखित मन वाले तेरे अन्तरंग में भोग भोगने की इच्छा से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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