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________________ गाथा ४६] तृतीयोऽधिकारः [२०३ व्याख्या-"पणतीस" णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं' एतानि पञ्चत्रिंशदक्षराणि सर्वपदानि भण्यन्ते । “सोल" 'अरिहंत-सिद्ध-आयरिय-उबज्झाय-साहू' एतानि षोडशाक्षराणि नामपदानि भण्यन्ते । “छ' 'अरिहन्तसिद्ध' एतानि षडक्षराणि अर्हत्सिद्धयोर्नामपदे द्व भण्येते । “पण" 'अ सि आ उ सा' एतानि पञ्चाक्षराणि आदिपदानि भण्यन्ते । “चउ' 'अरिहंत' इदमक्षरचतुष्टयमहतो नामपदम् । “दुर्ग" 'सिद्ध' इत्यक्षरद्वयं सिद्धस्य नामपदम् । “एगं च" 'अ' इत्येकोक्षरमहंत श्रादिपदम् । अथवा 'ओं' एकाक्षरं पञ्चपरमेष्ठिनामादिपदम् । तत्कथमिति चेत् ? "अरिहंता असरीरा आयरिया तह उवज्झाया । मुणिणो पढमक्खरणिप्पएणो ओंकारो पंच परमेट्ठी । १।" इति गाथाकथितप्रथमाक्षराणां 'समानः सवर्णे दी|भवति' 'परश्च लोपम्' 'उवणे श्रो' इति स्वरसन्धिविधानेन 'ओं' शब्दो निष्पद्यते । कस्मादिति ? 'जवह ज्झाएह' एतेषां पदानां सर्वमंत्रवादपदेषु मध्ये सारभूतानां इहलोकपरलोकेष्टफलप्रदानामथं ज्ञात्वा पश्चादनन्तज्ञानादिगुणस्मरणरूपेण वचनोच्चारणेन च वृत्त्यर्थ :-"पणतीस” 'णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आयरियाणं णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं' ये पैंतीस अक्षर 'सर्वपद' कहलाते हैं । “सोल" 'अरिहंत सिद्ध आयरिय उवज्झाय साहू' ये १६ अक्षर पंचपरमेष्ठियों के नाम पद कहलाते हैं। "छ” 'अरिहंतसिद्ध' ये छः अक्षर-अर्हन्त-सिद्ध इन दो परमेष्ठियों के नाम पद कहे जाते हैं। “पण' 'अ सि आ उ सा' ये पंच अक्षर पंच परमेष्ठियों के आदि-पद कहलाते हैं । "चउ" 'अरिहंत' ये चार अक्षर अर्हन्त परमेष्ठी के नामपद हैं। “दुगं" 'सिद्ध' ये दो अक्षर सिद्ध परमेष्ठी के नामपद हैं । “एगं च" 'अ' यह एक अक्षर अर्हत्परमेष्ठी का आदिपद है; अथवा 'ओं' यह एक अक्षर पाँचों परमेष्ठियों के आदि-पदस्वरूप हैं। प्रश्न-'ओ' यह पंच-परमेष्ठियों के आदिपद रूप कैसे है ? उत्तर-"अरिहंत का प्रथम अक्षर 'अ', अशरीर ( सिद्ध) का प्रथम अक्षर 'अ', आचार्य का प्रथम अक्षर 'आ', उपाध्याय का प्रथम अक्षर 'उ', मुनि का प्रथम अक्षर 'म्' इस प्रकार इन पांचों परमेष्ठियों के प्रथम अक्षरों से बना हुआ 'ओंकार' है, वही पंचपरमेष्ठियों के नाम का आदिपद है ।" इस प्रकार गाथा में कहे हुए जो प्रथम अक्षर ( अ अ आ उ म् ) हैं, इनमें पहले 'समानः सवर्णे दीर्धी भवति' इस सूत्र से 'अ अ आ' मिलकर दीर्घ 'आ' बनाकर 'परश्च लोपम्' इससे पर अक्षर 'आ' का लोप करके अ अ आ इन तीनों के स्थान में एक 'आ' सिद्ध किया फिर “उवणे ओ" इस सूत्र से 'आउ' के स्थान में 'ओ' बनाया ऐसे स्वरसंधि करने से 'श्रोम्' यह शब्द निस्पन्न हुआ। किस कारण ? "जवह ज्झाएह" सब मन्त्रशास्त्र के पदों में सारभूत इस लोक तथा परलोक में इष्ट फल को देने वाले इन पदों का अर्थ जानकर फिर अनन्त-ज्ञान आदि गुणों के स्मरण रूप वचन का Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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