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२०४] वृहद्रव्यसंग्रहः
[गाथा ४६ जापं कुरुत । तथैव शुभोपयोगरूपत्रिगुप्तावस्थायां मौनेन ध्यायत । पुनरपि कथम्भूतानां ? 'परमेट्ठिवाचयाणं' 'अरिहंत' इति पदवाचकमनन्तज्ञानादिगुणयुक्तोऽर्हद्वाच्योऽभिधेय इत्यादिरूपेण पञ्चपरमेष्ठिवाचकानां । 'अण्णं च गुरूवएसेण' अन्यदपि द्वादशसहस्रप्रमितपञ्चनमस्कारग्रन्थकथितक्रमेण लघुसिद्धचक्रं, वृहत्सिद्धचक्रमित्यादिदेवार्चनविधानं भेदाभेदरत्नत्रयाराधकगुरुप्रसादेन ज्ञात्वा ध्यातव्यम् । इति पदस्थध्यानस्वरूपं व्याख्यातम् ॥ ४६॥
____ एवमनेन प्रकारेण "गुप्तेन्द्रियमना ध्याता ध्येयं वस्तु यथास्थितम् । एकाअचिन्तनं ध्यानं फलं संवरनिर्जरौ ॥१॥" इति श्लोककथितलक्षणानां ध्यातृध्येयध्यानफलानां संक्षेपव्याख्यानरूपेण गाथात्रयेण द्वितीयान्तराधिकारे प्रथम स्थलं गतम् ।
अतः परं रागादिविकल्पोपाधिरहितनिजपरमात्मपदार्थभावनोत्पन्नसदानन्दैकलक्षणसुखामृतरसास्वादतृप्तिरूपस्य निश्चयध्यानस्य परम्परया कारणभूतम् यच्छुभोपयोगलक्षणं व्यवहारध्यानं तद्ध्येयभूतानां पंचपरमेष्टिनां मध्ये तावदर्हत्
उच्चारण करके जाप करो। इसी प्रकार शुभोपयोगरूप त्रिगुप्त (मन वचन काय इन तीनों की गुप्ति ) अवस्था में मौनपूर्वक ( इन पदों का ) ध्यान करो। फिर किन पदों को जपें, ध्या ? “परमेट्ठिवाचयाणं" 'अरिहंत' पद वाचक है और अनन्त ज्ञान आदि गुणों से युक्त 'श्रीअर्हत्' इस पद का वाच्य व अभिधेय (कहा जानेवाला) है; आदि प्रकार से पंचपरमेष्ठियों के वाचकों को जपो । “अण्णं च गुरूवएसेण" पूर्वोक्त पदों से अन्य का भी तथा बारहहजार श्लोक प्रमाण पंचनमस्कारमहात्म्य नामक ग्रन्थ में कहे हुए क्रम से लघुसिद्धचक्र, वृहत्सिद्धचक्र इत्यादि देवों के पूजन के विधान का, भेदाभेद-रत्नत्र के अराधक गुरु के प्रसाद से जानकर, ध्यान करना चाहिए । इस प्रकार पदस्थ ध्यान के स्वरूप का कथन किया ॥४॥
___ इस प्रकार “पांचों इन्द्रियों और मन को रोकने वाला ध्याता (ध्यान करने वाला) है; यथास्थित पदार्थ, ध्येय है; एकाग्र चिन्तन ध्यान है; संवर तथा निर्जरा ये दोनों ध्यान के फल हैं ॥१॥” इस श्लोक में कहे हुए लक्षण वाले ध्याता, ध्येय, ध्यान और फल का संक्षेप से कथन करने वाली तीन गाथाओं से द्वितीय अन्तराधिकार में प्रथम स्थल समाप्त हुआ।
अब इसके आगे राग आदि विकल्प रूप उपाधि से रहित निज-परमात्म-पदार्थ की भावना से उत्पन्न होने वाले सदानन्द एक लक्षण वाले सुखामृत रसास्वाद से तृप्ति रूप निश्चय-ध्यान का परम्परा से कारणभूत जो शुभोपयोग लक्षण वाला व्यवहार ध्यान है उसके ध्येयभूत पंच-परमेष्टियों में से प्रथम ही जो अर्हत् परमेष्ठी हैं उनके स्वरूप को कहता हूँ, यह
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