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२०२ ] वृहद्रव्यसंग्रहः
[गाथा ४६ इति । पश्चान्नयविवक्षावशेन विवक्षितैकदेशशद्धनिश्चयेन कर्मजनिता भण्यन्ते । तथैवाशुद्धनिश्चयेन जीवजनिता इति । स चाशुद्धनिश्चयः शुद्धनिश्चयापेक्षया व्यवहार एव । अथ मतम्--साक्षाच्छुद्धनिश्चयनयेन कस्येति पृच्छामो वयम् । तत्रोत्तरम्-साक्षाच्छुद्धनिश्चयेन स्त्रीपुरुषसंयोगरहितपुत्रस्येव, सुधाहरिद्रासंयोगरहितरङ्गविशेषस्येव तेषामुत्पत्तिरेव नास्ति कथमुत्तरं प्रयच्छाम इति । एवं ध्यातव्याख्यानमुख्यत्वेन तद्वयाजेन विचित्रध्यानकथनेन च सूत्रं गतम् ॥ ४८ ॥ अतः ऊवं पदस्थं ध्यानं मन्त्रवाक्यस्थं यदुक्त तस्य विवरणं कथयति :
पणतीससोलछप्पणचउद्गमेगं च जवह ज्झाएह । परमेट्ठिवाचयाणं अण्णं च गुरुवएसेण ॥ ४६॥ पञ्चत्रिंशत् षोडश षट् पञ्च चत्वारि द्विकं एकं च जपत ध्यायत । परमेष्ठिवाचकानां अन्यत् च गुरूपदेशेन ॥४६॥
के संयोग से उत्पन्न हुए हैं । नय की विवक्षा के अनुसार, विवक्षित एकदेश शुद्ध-निश्चयनय से तो राग-द्वष कर्मजनित कहलाते हैं। अशुद्ध-निश्चयनय से जीवजनित कहलाते हैं। यह अशुद्ध-निश्चयनय, शुद्ध-निश्चयनय की अपेक्षा से व्यवहारनय ही है। शङ्का-साक्षात् शुद्ध-निश्चयनय से ये राग-द्वोष किसके हैं; ऐसा हम पूछते हैं ? समाधान-स्त्री और पुरुष के संयोग विना पुत्र की अनुत्पत्ति की भांति और चूना व हल्दी के संयोग विना लाल रङ्ग की अनुत्पत्ति के समान, साक्षात् शुद्ध-निश्चयनय की अपेक्षा से इन राग द्वषादि की उत्पत्ति ही नहीं होती । इसलिये हम तुम्हारे प्रश्न का उत्तर ही कैसे देवें। (जैसे पुत्र न केवल स्त्री से ही होता है और न केवल पुरुष से ही होता है, किन्तु स्त्री व पुरुष दोनों के संयोग से उत्पन्न होता है; इसी प्रकार राग द्वष आदि न केवल कर्मजनित ही हैं और न केवल जीवजनित ही हैं, किन्तु जीव और कर्म इन दोनों के संयोगजनित हैं । साक्षात् शुद्ध-निश्चयनय की दृष्टि में जीव और पुद्गल दोनों शुद्ध हैं और इनके संयोग का अभाव है । इसलिये साक्षात् शुद्ध-निश्चयनय की अपेक्षा राग द्वष आदि की उत्पत्ति ही नहीं है)। इस प्रकार ध्याता ( ध्यान करनेवाले ) के व्याख्यान की प्रधानता से तथा उसके आश्रय से विचित्र ध्यान के कथन से यह गाथासूत्र समाप्त हुआ ॥ ४ ॥
अब आगे 'मन्त्रवाक्यों में स्थित जो पदस्थ ध्यान कहा गया है, उसका वर्णन करते हैं
गाथार्थ :-पंच परमेष्ठियों को कहनेवाले पैंतीस, सोलह, छः, पाँच, चार, दो और एक अक्षररूप मन्त्रपद हैं, उनका जाप्य करो और ध्यान करो; इनके अतिरिक्त अन्य मन्त्रपदोंको भी गुरु के उपदेशानुसार जपो और घ्यावो ॥ ४ ॥
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