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________________ गाथा ४८ ] तृतीयोऽधिकारः [२०१ भावनारूपमभ्यन्तरधर्मध्यानमुच्यते । पश्चपरमेष्ठिभक्त्यादितदनुकूलनुभानुष्ठानं पुनबहिरङ्गधर्मध्यानं भवति । तथैव स्वशुद्धात्मनि निर्विकल्पसमाधिलक्षणं शुक्लध्यानम् इति । अथवा "पदस्थं मन्त्रवाक्यस्थं पिण्डस्थं स्वात्मचिन्तनम् । रूपस्थं सर्वचिद्रूपं रूपातीतं निरञ्जनम् ।१।" इति श्लोककथितक्रमेण विचित्रध्यानं ज्ञातव्यमिति । अथ ध्यानप्रतिबन्धकानां मोहरागद्वषाणां स्वरूपं कथ्यते । शुद्धात्मादितत्त्वेषु विपरीताभिनिवेशजनको मोहो दर्शनमोहो मिथ्यात्वमिति यावत् । निर्विकारस्वसंवित्तिलक्षणवीतरागचारित्रप्रच्छादकचारित्रमोहो रागद्वषो भण्येते । चारित्रमोहो शब्देन रागद्वषो कथं भण्येते ? इति चेत्-कषायमध्ये क्रोधमानद्वयं द्वषाङ्गम् , मायालोभद्वयं च रागाङ्गम्, नोकषायमध्ये तु स्त्रीपुंनपुंमकवेदत्रयं हास्यरतिद्वयं च रागाङ्गम्, अरतिशोकद्वयं भयजुगुप्साद्वयं च द्वषाङ्गमिति ज्ञातव्यम् । अत्राह शिष्यः-रागद्वषादयः किं कर्मजनिताः किं जीवजनिता इति ? तत्रोत्तरम् -स्त्रीपुरुषसंयोगोत्पन्नपुत्र इव सुधाहरिद्रासंयोगोत्पन्नवर्णविशेष इवोभयसंयोगजनिता अनन्त ज्ञानमयी हूं, मैं अनन्त सुखरूप हूँ' इत्यादि भावनारूप अन्तरङ्ग धर्मध्यान है । पंचपरमेष्टियों की भक्ति आदि तथा उसके अनुकूल शुभ अनुष्ठान का करना बहिरङ्ग धर्मध्यान है। उसी प्रकार निज-शुद्ध-आत्मा में विकल्परहित समाधिरूप शुक्लध्यान है । अथवा “मन्त्रवाक्यों में स्थित ‘पदस्थध्यान' है, निज आत्मा का चितवन 'पिण्डस्थध्यान' है, सर्वचिद्रूप का चिन्तवन 'रूपस्थध्यान' है और निरंजन का ध्यान 'रूपातीत' ध्यान है । १।" इस श्लोक में कहे हुए क्रम के अनुसार अनेक प्रकार का ध्यान जानना चाहिये। अब ध्यान के प्रतिबन्धक ( रोकनेवाले ) मोह, राग तथा द्वष का स्वरूप कहते हैं। शुद्ध आत्मा आदि तत्त्वों में विपरीत अभिप्राय को उत्पन्न करनेव ला मोह, दर्शनमोह अथवा मिथ्यात्व है । निर्विकार-निज-आत्मानुभवरूप वीतराग चारित्र को ढकने वाला चारित्रमोह अथवा राग-द्वेष कहलाता है । प्रश्न-चारित्रमोह शब्द से राग द्वष कैसे कहे गये ? उत्तर-कषायों में क्रोध-मान ये दो द्वष अंश हैं और माया-लोभ ये दोनों राग अंश हैं। नोकषायों में स्त्रीवेद, पुवेद, नपुसकवेद ये तीन तथा हास्य-रति ये दो, ऐसी पांच नोकषाय राग के अंश; अरति-शोक ये दो, भय तथा जुगुप्सा ये दो, इन चार नोकषायों को द्वष का अंश जानना चाहिये। शिष्य पूछता है-राग-द्वेष आदि, कर्मों से उत्पन्न हुए हैं या जीव से ? इसका उत्तर-स्त्री और पुरुष इन दोनों के संयोग से उत्पन्न हुए पुत्र के समान, चूना तथा हल्दी इन दोनों के मेल से उत्पन्न हुए लाल रङ्ग की तरह, राग द्वष आदि जीव और कर्म इन दोनों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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