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२००] वृहद्रव्यसंग्रह
[ गाथा ४८ श्रेण्या पुनरपूर्वकरणक्षपकानिवृत्तिकरणक्षपकसूक्ष्मसाम्परायक्षपकाभिधानगुणस्थानत्रये चेति प्रथमं शुक्लध्यानं व्याख्यातम् ।
निजशुद्धात्मद्रव्ये वा निर्विकारात्मसुखसंवित्तिपर्याय वा निरुपाधिस्वसंवेदनगुणे वा यत्रैकस्मिन् प्रवृत्तं तत्रैव वितर्कसंज्ञेन स्वसंवित्तिलक्षणभावश्रुतवलेन स्थिरीभयावीचारं गुणद्रव्यपर्यायपरावर्तनं न करोति यत्तदेकत्ववितर्कावीचारसंज्ञ क्षीणकषायगुणस्थानसम्भवं द्वितीयं शुक्लध्यानं भण्यते । तेनैव केवलज्ञानोत्पत्तिः इति । अथ सूक्ष्मकायक्रियाव्यापाररूपं च तदप्रतिपाति च सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिसंज्ञं तृतीयं शुक्लध्यानम् । तच्चोपचारेण सयोगिकेवलिजिने भवतीति । विशेषेणोपरता निवृत्ता क्रिया यत्र तद् व्युपरतक्रियं च तदनिवृत्ति चानिवर्तकं च तद्व्युपरतक्रियानिवृत्तिसंशं चतुर्थ शुक्लध्यानं । तच्चोपचारेणायोगिकेवलि जिने भवतीति । इति संक्षेपेणागमभाषया विचित्रध्यानं व्याख्यातम् । . अध्यात्मभाषया पुनः सहजशुद्धपरमचैतन्यशालिनि निर्भरीनन्दमालिनि भगवति निजात्मन्युपादेयबुद्धिं कृत्वा पश्चादनन्तज्ञानोऽहमनन्तसुखोऽहमित्यादि
स्थानों में होता है । क्षपकश्रेणी की विवक्षा में अपूर्वकरणक्षपक, अनिवृत्तिकरणक्षपक और सूक्ष्कसाम्परायक्षपक नामक, (८, ६, १०) इन तीन गुणस्थानों में होता है । इस प्रकार प्रथम शुक्लध्यान का व्याख्यान हुआ।
___ निज-शुद्ध-आत्मद्रव्य में या विकार रहित आत्मसुख-अनुभवरूप पर्याय में, या उपाधिरहित स्वसंवेदन गुण में, इन तीनों में से जिस एक द्रव्य, गुण या पर्याय में (जो ध्यान ) प्रवृत्त होगया और उसी में वितर्क नामक निजात्मानुभवरूप भावश्रुत के बल से स्थिर होकर अवीचार अर्थात् द्रव्य, गुण, पर्याय में परावर्तन नहीं करता, वह "एकत्ववितर्क अवीचार" नामक, क्षीणकषाय ( १२ वें) गुणस्थान में होनेवाला, दूसरा शुक्लध्यान कहलाता है । इस दूसरे शुक्लध्यान से ही केवलज्ञान की उत्पत्ति होती है । अब सूक्ष्म काय की क्रिया के व्यापाररूप और अप्रतिपाति (कभी न गिरे ) ऐसा "सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति" नामक तीसरा शुक्लध्यान है । वह उपचार से सयोगिकेवलिजिन ( १३ वें) गुणस्थान में होता है। विशेषरूप से उपरत अर्थात् दूर होगई हैं क्रिया जिसमें वह व्युपरतक्रिय है; व्युपरतक्रिय हो और अनिवृत्ति अर्थात् निवृत्ति न हो (मुक्त न हुआ हो), वह "व्युपरतक्रियानिवृत्ति" नामा चतुर्थ शुक्लध्यान है । वह उपचार से अयोगि केवलि जिन के ( १४ वें गुणस्थान में ) होता है । आगम भाषा से नाना प्रकार के ध्यानों का संक्षेप से कथन हुआ।
अध्यात्म भाषा से, सहज-शुद्ध-परम-चैतन्यशाली तथा परिपूर्ण आनन्द का धारी भगवान् निज आत्मा में उपादेयबुद्धि (निज-शुद्ध-आत्मा ही ग्राह्य है) करके, फिर 'मैं
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