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________________ गाथा ४५] तृतीयोऽधिकारः [ १६१ __व्याख्या--अस्यैव सरागचारित्रस्यैकदेशावयवभूतं देशचारित्रं तावत्कथ्यते । तद्यथा-मिथ्यात्वादिसप्तप्रकृत्युपशमक्षयोपशमक्षये सति, अध्यात्मभाषया निजशुद्धात्माभिमुखपरिणामे वा सति शुद्धात्मभावनोत्पन्ननिर्विकारवास्तवसुखामृतमुपादेयं कृत्वा संसारशरीरभोगेषु योऽसौ हेयबुद्धिः सम्यग्दर्शनशुद्धः स चतुर्थगुणस्थानवी व्रतरहितो दार्शनिको भण्यते । यश्चाप्रत्याख्यानावरणसंज्ञद्वितीयकषायक्षयोपशमे जाते सति पृथिव्यादिपश्चस्थावरवधे प्रवृत्तोऽपि यथाशक्त्या त्रसवधे निवृत्तः स पञ्चमगुणस्थानवी श्रावको भण्यते । तस्यैकादशभेदाः कथ्यन्ते । तथाहि - सम्यक्त्वपूर्वकत्वेन मद्यमांसमधुत्यागोदुम्बरपञ्चकपरिहाररूपाष्टमूलगुणसहितः सन् संग्रामादिप्रवृत्तोऽपि पापद्धर्यादिभिनिष्प्रयोजनजीवघादादो निवृत्तः प्रथमो दार्शनिकश्रावको भण्यते । स एव सर्वथा त्रसवधे निवृत्तः सन् पश्चाणुव्रतत्रयगुणवतशिक्षाव्रतचतुष्टयसहितो द्वितीयव्रतिकसंज्ञो भवति । स एव त्रिकालसामायिक प्रवृत्तः तृतीयः, प्रोषधोपवासे प्रवृत्तश्चतुर्थः, सचित्तपरिहारेण पञ्चमः, दिवा ब्रह्मचर्येण षष्ठः, सर्वथा ब्रह्मचर्येण सप्तमः, वृत्त्यर्थ :-इसी सराग-चारित्र के एक देश अवयवरूप देशचारित्र को कहते हैं। वह इस प्रकार है-मिथ्यात्व आदि सात प्रकृतियों के उपशम, क्षयोपशम या क्षय होने पर अथवा अध्यात्म भाषा के अनुसार निज-शुद्ध-आत्मा के सन्मुख परिणाम होने पर, शुद्धआत्म-भावना से उत्पन्न निर्विकार यथार्थ सुखरूपी अमृत को उपादेय करके, संसार शरीर और भोगों में जो हेयबुद्धि है, वह सम्यग्दर्शन से शुद्ध चतुर्थ गुणस्थान वाला व्रतरहित दार्शनिक है । जो अप्रत्याख्यानावरण द्वितीयकषाय के क्षयोपशम होने पर, पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति इन पांच स्थावरों के वध में प्रवृत्त होते हुए भी, अपनी शक्ति अनुसार सजीवों के वध से निवृत्त होता है (अर्थात् यथाशक्ति त्रसजीवों की हिंसा नहीं करता है), उसको पंचम गुणस्थानवी श्रावक कहते हैं। उस पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक के ११ भेद कहते हैं । सम्यग्दर्शन-पूर्वक मद्य, मांस, मधु और पांच उदुम्बर फलों के त्यागरूप आठ मूलगुणों को पालता हुआ जो जीव युद्धादि में प्रवृत्त होने पर भी, पाप को बढ़ाने वाले शिकार आदि के समान बिना प्रयोजन जीवघात नहीं करता, उसको प्रथम दार्शनिक श्रावक कहते हैं । वही दार्शनिक श्रावक जब त्रसजीव की हिंसा से सर्वथा रहित होकर पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों का आचरण करता है तब 'व्रती' नामक दूसरा श्रावक होता है। वही जब त्रिकाल सामायिक में प्रवृत्त होता है तब तीसरी प्रतिमाधारी, प्रोषध-उपवास में प्रवृत्त होने पर चौथी प्रतिमाधारी, सचित्त के त्याग से पांचवीं प्रतिमा, दिन में ब्रह्मचर्य धारण करने से छठी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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