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१६०] बृहद्रव्यसंग्रहः
[ गाथा ४५ . यदि भेदो नास्ति तर्हि कथमावरणद्वयमिति चेत् ? तत्रोत्तरम् –येन कर्मणार्थपरिच्छित्तिरूपः क्षयोपशमः प्रच्छाद्यते तस्य ज्ञानावरणसंज्ञा, तस्यैव क्षयोपशमविशेषस्य यत् कर्म पूर्वोक्तलक्षणं विपरीताभिनिवेशमुत्पादयति तस्य मिथ्यात्वसंज्ञेति भेदनयेनावरणभेदः । निश्चयनयेन पुनरभेदविवक्षायां कर्मत्वं प्रत्यावरणद्वयमप्येकमेव विज्ञातव्यम् । एवं दर्शनपूर्वकं ज्ञानं भवतीति व्याख्यानरूपेण गाथा गता॥४४॥
अथ सम्यग्दर्शनज्ञानपूर्वकं रत्नत्रयात्मकमोक्षमार्गदृतीयावयवभूतं स्वशुद्धात्मानुभूतिरूपशुद्धोपयोगलक्षणवीतरागचारित्रस्य पारम्पर्येण साधकं सरागचारित्रं प्रतिपादयति :
असुहादो विणिवित्ती सुहे पवित्ती य जाण चारित्र । वदसमिदिगुत्तिरूवं ववहारणयादु जिणभणियम् ॥ ४५ ॥ अशुभात् विनिवृत्तिः शुभे प्रवृत्तिः च जानीहि चारित्रम् । व्रतसमितिगुप्तिरूपं व्यवहारनयात् तु जिनभणितम् ॥४५॥
शंका-यदि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान में भेद नहीं है तो उन दोनों गुणों के घातक ज्ञानावरण और मिथ्यात्व दो कर्म कैसे कहे गये हैं ? समाधान-जिस कर्म से पदार्थ के जानने रूप क्षयोपशम ढक जाता है; उसकी 'ज्ञानावरण' संज्ञा है और उस क्षयोपशम विशेष में जो कर्म, पूर्वोक्त लक्षण वाले विपरीत-अभिनिवेश को उत्पन्न करता है, उस कर्म की 'मिथ्यात्व' संज्ञा है । इस प्रकार भेद नय से आवरण में भेद है। निश्चय नय से अभेद की विवक्षा में कर्मपने की अपेक्षा उन दो आवरणों को एक ही जानना चाहिए । इस प्रकार दर्शनपूर्वक ज्ञान होता है। ऐसा व्याख्यान करने वाली गाथा समाप्त हुई ॥४४॥
सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान-पूर्वक होने वाला रत्नत्रय-स्वरूप मोक्षमार्ग का तीसरा अवयवरूप और स्व-शुद्ध-आत्मा के अनुभवरूप-शुद्धोपयोग लक्षणवाले वीतराग चारित्र को परंपरा से साधने वाला, ऐसे सराग-चारित्र को कहते हैं:
गाथार्थ :--अशुभ कार्य से निवृत्ति (दूर होना) और शुभ कार्य में प्रवृत्ति, उसको (व्यवहार ) चारित्र जानो । श्री जिनेन्द्र देव ने व्यवहार नय से उस चारित्र को ५ व्रत, ५ समिति और ३ गुप्तिस्वरूप कहा है ॥ ४५ ॥
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