SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 210
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गाथा ४४ ] तृतीयोऽधिकारः [ १८६ दर्शनसंज्ञा स्थापिता, यच्च शुक्लमिदमित्यादिविशेषपरिच्छेदनं तस्य ज्ञानसंज्ञा स्थापितेति दोषो नास्ति । सिद्धान्ते पुनः स्वसमयव्याख्यानं मुख्यवृत्त्या । तत्र सूक्ष्मव्याख्याने क्रियमाणे सत्याचारात्मग्राहकं दर्शनं व्याख्यातमित्यत्रापि दोषो नास्ति । ___ अत्राह शिष्यः-सत्तावलोकनदर्शनस्य ज्ञानेन सह भेदो ज्ञातस्तावदिदानीं यत्तत्त्वार्यश्रद्धानरूपं सम्यग्दर्शनं वस्तुविचाररूपं सम्यग्ज्ञानं तयोर्विशेषो न ज्ञायते । कस्मादितिचेत् । सम्यग्दर्शने पदार्थनिश्चयोऽस्ति, तथैव सम्यग्ज्ञाने च, को विशेष इति ? अत्र परिहारः-अर्थग्रहणपरिच्छित्तिरूपः क्षयोपशमविशेषो ज्ञानं भएयते, तत्रैव भेदनयेन वीतरागसर्वज्ञप्रणीतशुद्धात्मादितत्त्वेष्विदमेवेत्थमेवेति निश्चयसम्यक्त्वमिति । अविकल्परूपेणाभेदनयेन पुनर्यदेव सम्यग्ज्ञानं तदेव सम्यक्त्वमिति । कस्मादिति चेत्-अतत्त्वे तत्वबुद्धिरदेवे देवबुद्धिरधर्मे धर्मबुद्धिरित्यादिविपरीताभिनिवेशरहितस्य ज्ञानस्यैव सम्यग्विशेषणवाच्योऽवस्थाविशेषः सम्यक्त्वं भएयते यतः कारणात । प्रतीति कराने के लिये स्थूल व्याख्यान से बाह्य विषय में जो सामान्य का गहण है उसका नाम 'दर्शन' स्थापित किया; 'यह सफेद है' इत्यादि रूप से बाह्य विषय में जो विशेष का जानना है, उसका नाम 'ज्ञान' स्थापित किया; अतः दोष नहीं है। सिद्धान्त में मुख्यता से निजसमय का व्याख्यान है, इसलिये सिद्धान्त में सूक्ष्म व्याख्यान करने पर आचार्यों ने 'जो आत्मा का ग्राहक है' उसको 'दर्शन' कहा है। अतः इसमें भी दोष नहीं। यहाँ शिष्य शङ्का करता है सत्ता-अवलोकनरूप-दर्शन का ज्ञान के साथ भेद जाना, किन्तु तत्त्वार्थ-श्रद्धानरूप-सम्यग्दर्शन और वस्तु-विचाररूप-सम्यग्ज्ञान इन दोनों में भेद नहीं जाना । यदि कहो कि कैसे नहीं जाना; तो पदार्थ का जो निश्चय सम्यग्दर्शन में है वही सम्यग्ज्ञान में हैं। इसलिये सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान में क्या भेद है ? समाधानपदार्थ के गहण में जाननेरूप क्षयोपशम विशेष 'ज्ञान' कहलाता है । उस ज्ञान में ही, वीतराग सर्वज्ञ श्री जिनेन्द्र द्वारा कहे हुए शुद्ध आत्मा आदि तत्त्वों में 'यह ही तत्त्व है, ऐसा ही तत्त्व है', इस प्रकार का जो निश्चय है, भेदनय से वह सम्यक्त्व है। निर्विकल्परूप अभेदनय से तो जो सम्यग्ज्ञान है, वही सम्यग्दर्शन है । ऐसा क्यों है ? उत्तर-'अतत्त्व में तत्त्व-बुद्धि, अदेव (देव नहीं) में देव-बुद्धि और अधर्म में धर्म-बुद्धि' इत्यादि विपरीताभिनिवेश से रहित ज्ञान की ही, 'सम्यक' विशेषण से कहे जाने वाली अवस्था-विशेष 'सम्यक्त्व' कहलाती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy