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________________ १६२] वृहद्रव्यसंग्रहः [गाथा ४५ प्रारम्भादिसमस्तव्यापारनिवृत्तोऽष्टमः, वस्त्रप्रावरणं विहायान्यसर्वपरिगृहनिवृत्तोनवमः, गृहव्यापारादिसर्वसावद्यानुमतनिवृत्तो दशमः, उद्दिष्टाहारनिवृत्त एकादशम इति । एतेष्वेकादशश्रावकेषु मध्ये प्रथमषट्कं तारतम्येन जघन्यम्, ततश्च त्रयं मध्यमम् , ततो द्वयमुत्तममिति संक्षेपेण दार्शनिकश्रावकायेकादशभेदाः ज्ञातव्याः । अथैकदेशचारित्रव्याख्यानानन्तरं सकलचारित्रमुपदिशति । "असुहादो विणिवित्ती सुहे पवित्ती य जाण चारित्त" अशुभान्निवृत्तिः शुभे प्रवृत्तिश्चापि जानीहि चारित्रम् । तच्च कथम्भूतं ? 'वदसमिदिगुत्तिरूवं ववहारणयादु जिणभणियं' व्रतसमितिगुप्तिरूपं व्यवहारनयाजिनरुक्तमिति । तथाहि प्रत्याख्यानावरणसंज्ञतृतीयकषायक्षयोपशमे सति "विसयकसानोगाढो दुस्सुदिदृच्चित्तदुट्ठगोट्ठिजुदो। उग्गो उम्मग्गपरो उवोगो जस्स सो असुहो।१।" इति गाथाकथितलक्षणादशुभोपयोगान्निवृत्तिस्तद्विलक्षणे शुभोपयोगे प्रवृत्तिश्च हे शिष्य चारित्रं जानीहि । तच्चाचाराराधनादिचरणशास्त्रोक्तप्रकारेण पञ्चमहाव्रतपञ्चसमितित्रिगुप्तिरूपमप्य प्रतिमा, सर्वथा ब्रह्मचर्य को धारण करने से सप्तम प्रतिमा, प्रारम्भ आदि सम्पूर्ण व्यापार के त्याग से अष्टम प्रतिमा, पहनने-ओढ़ने के वस्त्रों के अतिरिक्त अन्य सब परिग्रहों को त्यागने से नवमी प्रतिमा, घर-व्यापार आदि सम्बन्धी समस्त सावध (पापजनक) कार्यों में सम्मति (सलाह) देने के त्याग से दशमी प्रतिमा, और उद्दिष्ट आहार के त्याग से ग्यारहवीं प्रतिमा का धारक श्रावक होता है । इन ग्यारह प्रकार के श्रावकों में, पहली छः प्रतिमा वाले तारतमता से जघन्य श्रावक है; सातवीं, आठवीं और नववीं इन तीन प्रतिमा वाले मध्यम श्रावक हैं; दसवीं और ग्यारहवीं प्रतिमाओं के धारक उत्तम श्रावक हैं। इस प्रकार संक्षेप से देशचारित्र के दार्शनिक आदि ग्यारह भेद जानने चाहिये। अब इस एकदेशचारित्र के व्याख्यान के अनन्तर सकलचारित्र को कहते हैं"असुहादो विणिवित्ती सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं" हे शिष्य ! अशुभ कार्यों से निवृत्ति और शुभ में जो प्रवृत्ति है, उसको चारित्र जानो। वह कैसा है ? “वदसमिदिगुत्तिरूवं ववहारणयादु जिणभणियं' व्रत-समिति-गुप्तिरूप है, व्यवहार नयं से श्री जिनेन्द्र ने ऐसा कहा है। वह इस प्रकार है-प्रत्याख्यानावरण नामक तीसरी कषाय के क्षयोपशम होने पर "जिसका उपयोग विषय-कषायों में मग्न है, दुःश्रुति (विकथा ), दुष्टचित्त और दुष्ट गोष्ठी (बुरी संगति), उग्र तथा उन्मार्ग (बुरे मार्ग) में तत्पर है, वह जीव अशुभ में स्थित है। १।" "इस गाथा में कहे हुए अशुभोपयोग से छुटना और उक्त अशुभोपयोग से विलक्षण (उल्टा) शुभोपयोग में प्रवृत्त होना”, हे शिष्य ! उसको तुम चारित्र जानो। आचार-आराधना आदि चरणानुयोग के शास्त्रों में कहे अनुसार वह चारित्र पांच महाव्रत, पांच समिति व तीन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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