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________________ १७६] वृहद्रव्यसंग्रह [ गाथा ४१ ज्ञातव्यमिति । अत्र व्यवहारसम्यक्त्वमध्ये निश्चयसम्यक्त्वं किमर्थ व्याख्यातमिति चेत् ? व्यवहारसम्यक्त्वेन निश्चयसम्यक्त्वं साध्यत इति साध्यसाधकभावज्ञापनार्थमिति । इदानीं येषां जीवानां सम्यग्दर्शनग्रहणात्पूर्वमायुर्वन्धो नास्ति तेषां व्रताभावेऽपि नरनारकादिकुत्सितस्थानेषु जन्म न भवतीति कथयति । 'सम्यग्दर्शनशुद्धा नारकतिर्यनपुंसकत्रीत्वानि । दुष्कुलविकृताल्पायुर्दरिद्रतां च व्रजन्ति नाप्यव्रतिकाः।१। इतः परं मनुष्यगतिमुत्पन्नसम्यग्दृष्टेः प्रभावं कथयति । 'प्रोजस्तेजोविद्यावीर्ययशोवृद्धिविजयविभवसनाथाः। महाकुला महार्था मानवतिलका भवन्ति दर्शनपूताः। १।' अथ देवगतौ पुनः प्रकीर्णकदेववाहनदेवकिल्विषदेवनीचदेवत्रयं विहायान्येषु महर्द्धिकदेवेषूत्पद्यते सम्यग्दृष्टिः । इदानी सम्यक्त्वग्रहयात्पूर्व देवायुष्कं विहाय. ये बद्धायुष्कास्तान् प्रति सम्यक्त्वमाहात्म्यं कथयति । "हेट्ठिमछप्पुढवीणं जोइसवणभवणसव्वइत्थीणं। पुगिणदरे ण हि सम्मो ण सासणो खारयापुण्णे ।" तमेवार्थ प्रकारान्तरेण कथयति । 'ज्योतिर्भावनभौमेषु षट्स्वधः चाहिए । प्रश्न-यहाँ इस व्यवहार-सम्यक्त्व के व्याख्यान में निश्चय-सम्यक्त्व का वर्णन क्यों किया गया ? उत्तर-व्यवहार-सम्यक्त्व से निश्चय-मम्यक्त्व साधा (सिद्ध किया) जाता है, (व्यवहार-सम्यक्त्व साधक और निश्चय-सम्यक्त्व साध्य ) इस साध्यसाधक भाव को बतलाने के लिये किया गया है। अब जिन जीवों के सम्यग्दर्शन ग्रहण होने से पहले आयु का बंध नहीं हुआ है, व्रत के अभाव में भी निन्दनीय नर नारक आदि खोटे स्थानों में उनका जन्म नहीं होता, ऐसा कथन करते हैं । 'जिनके शुद्ध सम्यग्दर्शन है किन्तु अव्रति हैं वे भी नरकगति, त्रियंचगति, नपुंसक, स्त्री, नीचकुल, अंगहीन-शरीर, अल्प-आयु और दरिद्रीपने को प्राप्त नहीं होते।' इसके आगे मनुष्य गति में उत्पन्न होने वाले सम्यग्दृष्टि जीवों का वर्णन करते हैं-'जो दर्शन से पवित्र हैं वें उत्साह, प्रताप, विद्या, वीर्य, यश, वृद्धि, विजय और विभव से सहित उत्तम कुल वाले, विपुल धनशाली तथा मनुष्य शिरोमणि होते हैं।' प्रकीर्णक देव, वाहन देव, किल्विष देव तथा व्यन्तर-भवनवासी-ज्योतिषी तीन नीच देवों के अतिरिक्त महाऋद्धि धारक देवों में सम्यग्दृष्टि उत्पन्न होते हैं । जिन्होंने सम्यक्त्व ग्रहण से पूर्व देव आयु को छोड़कर अन्य आयु बांध ली है, अब उनके प्रति सम्यक्त्व का माहात्म्य कहते हैं-'नीचे के ६ नरकों में ज्योतिषी-व्यन्तर-भवनवासी देवों में, सब स्त्रियों में और लब्ध्यपर्याप्त कों में सम्यग्दृष्टि उत्पन्न नहीं होता। नरक अपर्याप्तकों में सासादण नहीं होते।' इसी आशय को अन्य प्रकार से कहते हैं-'ज्योतिषी, भवनवासी और व्यंतर देवों में, नीचे की ६ नरक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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