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________________ गाथा ४२ ] तृतीयोऽधिकारः [१७७ श्वभ्रभूमिषु । तिर्य नु नसुरस्त्रीषु सदृष्टिनैव जायते' ॥१॥' अथौपशमिकवेदकक्षायिकाभिधानसम्यक्त्वत्रयमध्ये कस्यां गतौ कस्य सम्यक्त्वस्य सम्भवोऽस्तीति कथयति-सौधर्मादिष्वसंख्याब्वायुष्कतिर्यतु नष्वपि । रत्नप्रभावनौ च स्यात्सम्यक त्वत्रयमङ्गिनाम् ।२।" कर्मभूमिजपुरुषे च त्रयं सम्भवति बद्धायुष्के लब्धायुष्केऽपि । किन्त्वौपशमिकमपर्याप्तावस्थायां महर्द्धिकदेवेष्वेव । “शेषेषु देवतिर्यक्षु षट्स्वधः श्वभ्रमिषु । द्वौ वेदकोपशमको स्यातां पर्याप्तदेहिनाम् ॥३॥" इति निश्चयव्यवहाररत्नत्रयात्मकमोचमार्गावयविनः प्रथमावयवभूतस्य सम्यक्त्वस्य व्याख्यानेन गाथा गता ॥४१॥ अथ रत्नत्रयात्मकमोक्षमार्गद्वितीयावयवरूपस्य सम्यग्ज्ञानस्य स्वरूपं प्रतिपादयति संसयविमोहविब्भमविवजियं अप्पपरसरुवस्स । • महणं सम्मकाणं सायारमसेयभेयं तु ॥ ४२ ॥ पृथिवियों में, तिर्यचों ( कर्मभूमि तिर्यच, भोगभूमि तिर्यचनियों ) में, मनुष्यनियों में तथा देवांगनाओं में सम्यग्दृष्टि उत्पन्न नहीं होते। १। औपशमिक, वेदक और क्षायिक नामक तीन सम्यक्त्वों में से किस गति में कौन सा सम्यक्त्व हो सकता है, सो कहते हैं-'सौधर्म आदि स्वर्गों में, असंख्यात वर्ष की आयु वाले तिर्यचों में, मनुष्यों में और रत्नप्रभा प्रथम नरक में (उपशम, वेदक, क्षायिक) तीनों सम्यक्त्व होते हैं । २।' जिसने आयु बांध ली है या नहीं बांधी ऐसे कर्मभूमि-मनुष्यों के तीनों सम्यक्त्व होते हैं। परन्तु अपर्याप्त अवस्था में औपशमिक सम्यक्त्व महर्द्धिक देवों में ही होता है। 'शेष देवों व तियंचों में और ६ नीचे की नरकभूमियों में पर्याप्त जीवों के वेदक और उपशम ये दो ही सम्यक्त्व होते हैं ।३।' इस प्रकार निश्चय-व्यवहार रूप रत्नत्रय-आत्मक मोक्षमार्ग अवयवी का प्रथम अवयवभूत सम्यग्दर्शन का व्याख्यान करने वाली गाथा समाप्त हुई ॥४१॥ अब रत्नत्रय-श्रात्मक मोक्षमार्ग के द्वितीय अवयव रूप सम्यग्ज्ञान के स्वरूप का प्रतिपादन करते हैं : गाथार्थ :-आत्मा का और परपदार्थों के स्वरूप का संशय, विमोह और विभ्रम रहित जानना, सम्यग्ज्ञान है ! वह साकार और अनेक भेदों वाला है ।। ४२ ॥ १; निकायत्रितये पूर्वे श्वभ्रभूमिषु षट्स्वधः । वनितासु समस्तासु सम्यग्दृष्टिर्न जायते ॥ २६८ ॥ २; नृभोगभूमितिर्यक्षु सौधर्मादिषु नाकिषु । प्राद्ययां श्वभ्रभूमौ च सम्यक्त्वत्रयमिष्यते ॥ ३०० ॥ ३; शेष त्रिदशतिर्यक्षु षट्स्वधः श्वभ्रभूमिषु । पर्याप्तेषु द्वयं ज्ञेयं क्षायिकेण विनांगिषु ॥ ३०१॥ (अमितगति) पंचसंग्रह प्रथम परिच्छेद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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