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________________ गाथा ४१ ] तृतीयोऽधिकारः [ १७५ ज्ञातव्यः । तत्र पुनरुतरमथुरायां जिनसमयप्रभावनशीलाया उर्विल्लामहादेव्याः प्रभावननिमित्तमुपसर्गे जाते सति वज्रकुमारनाम्ना विद्याधरश्रमणेनाकाशे जैनरथभ्रमणेन प्रभावना कृतेत्येका श्रागमप्रसिद्धा कथा । द्वितीया तु जिनसमयप्रभावनाशीलवप्रा महादेवीनामस्वकीयजनन्या निमित्त स्वस्य धर्मानुरागेण च हरिषेणनामदशमचक्रवर्तिना तद्भवमोक्षगामिना जिनसमय प्रभावनार्थमुत्तङ्गतोरणजिनचैत्यालयमण्डितं सर्वभूमितलं कृतमिति रामायणे प्रसिद्धेयं कथा । निश्चयेन पुनस्तस्यैव व्यवहारप्रभावनागुणस्य बलेन मिथ्यात्वविषयकषायप्रभृति समस्तविभाव परिणामरूपपरसमयानां प्रभावं हत्वा शुद्धोपयोगलक्षणस्वसंवेदनज्ञानेन विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावनिजशुद्धात्मनः प्रकाशनमनुभवनमेव प्रभावनेति ॥ ८ ॥ एवमुक्तप्रकारेण मूढत्रयमदाष्टकपडनायतनशङ्काद्यष्टमलरहितं शुद्धजीवादितच्चार्थश्रद्धानलक्षणं सरागसम्यक्त्वाभिधानं व्यवहारसम्यक्त्वं विज्ञेयम् । तथैव तेनैव व्यवहारसम्यक्त्वेन पारम्पर्येण साध्यं शुद्धोपयोगलक्षणनिश्चयरत्नत्रयभावनोत्पन्न परमाहादैकरूपसुखा मृतरसास्वादनमेवोपादेयमिन्द्रियसुखादिकं च हेयमिति रुचिरूपं वीतरागचारित्राविनाभृतं वीतरागसम्यक्त्वाभिधानं निश्चयसम्यक्त्वं च अनुरागिणी रविला महादेवी को प्रभावना संबंधी उपसर्ग होने पर, वज्रकुमार नामक विद्याधर श्रमण ने आकाश में जैन रथ को फिराकर प्रभावना की, यह एक आगम प्रसिद्ध कथा है । दूसरी कथा यह है-उसी भव से मोक्ष जाने वाले हरिषेण नामक दशवें चक्रवर्त्ती जनमत की प्रभावनाशील अपनी माता वप्रा महादेवी के निमित्त और अपने धर्मानुराग से जनमत की प्रभावना के लिये ऊंचे तोरण वाले जिनमंदिरों से समस्त पृथ्वीतल को भूषित कर दिया । यह कथा रामायण (पद्मपुराण) में प्रसिद्ध है । इसी व्यवहार प्रभावना गुण के बल से मिथ्यात्व - विषय - कषाय आदि सम्पूर्ण विभाव परिणाम रूप पर समय के प्रभाव को नष्ट करके शुद्धोपयोग लक्षण वाले स्वसंवेदन ज्ञान से, निर्मल ज्ञान - दर्शनरूप स्वभाव वाली निज शुद्ध आत्मा का जो प्रकाशन अथवा अनुभवन, वह निश्चय से प्रभावना है ॥ ८ ॥ इस प्रकार तीन मूढ़ता, आठ मद, छः अनायतन और शंका आदि रूप आठ दोषों से रहित तथा शुद्ध जीव आदि तत्त्वार्थों के श्रद्धानरूप सराग- सम्यक्त्व नामक व्यवहारसम्यक्त्व जानना चाहिए । इसी प्रकार उसी व्यवहार - सम्यक्त्व द्वारा परम्परा से साधने योग्य, शुद्ध-उपयोग रूप निश्चय रत्नत्रय की भावना से उत्पन्न परम् आह्लाद रूप सुखामृत रस का आस्वादन ही उपादेय है, इन्द्रियजन्य सुख आदिक हेय हैं, ऐसी रुचि रूप तथा वीतराग चारित्र का अविनाभावि वीतराग- सम्यक्त्व नामक निश्चयसम्यक्त्व जानना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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