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________________ गाथा ४१ ] द्वितीयोऽधिकारः [१७१ किन्तु बस्त्राप्रावरणं जलस्नानादिकं च न कुर्वन्ति तदेव दूषणमित्यादिकुत्सितभावस्य विशिष्ट विवेकवलेन परिहरणं सा भाव निर्विचिकित्सा भएयते । अस्य व्यवहारनिर्विचिकित्सागुणस्य विषय उद्दायनमहाराजकथा रुक्मिणीमहादेवीकथा चागमप्रसिद्धा ज्ञातव्येति । निश्चयेन पुनस्तस्यैव व्यवहारनिर्विचिकित्मागुणस्य बलेन समस्तद्वषादिविकल्परूपकल्लोलमालात्यागेन निर्मलात्मानुभूतिलक्षणे निजशुद्धात्मनि व्यवस्थानं निर्वि चिकित्सागुण इति ॥ ३॥ इतः परं अमूढदृष्टिगुणं कथयति । वीतरागसर्वज्ञप्रणीतागमार्थाद्वहि तैः कुदृष्टिभिर्यत्प्रणीतं धातुवादखन्यवादहरमेखलक्षुद्रविद्याव्यन्तरविकुर्वणादिकमज्ञानिजनचित्तचमत्कारोत्पादकं दृष्ट्वा श्रुत्वा च योऽसौ मूढभावेन धर्मबुद्धया तत्र रुचि भक्तिं न कुरुते स एव व्यवहारोऽमूढदृष्टिरुच्यते । तत्र चोत्तरमथुरायां उदुरुलिभट्टारकरेवतीश्राविकाचन्द्रप्रभनामविद्याधरब्रह्मचारिसम्बन्धिनीकथा प्रसिद्धेति । निश्चयेन पुनस्तम्यैव व्यवहारामूढदृष्टिगुणस्य प्रसादेनान्तस्तत्त्वबहिस्तत्वनिश्चये जाते सति समस्तमिथ्यात्वरागादिशुभाशुभसंकल्पविकल्पेष्टात्मबुद्धिमुपादेयवृद्धि हितबुद्धिं अच्छी २ बातें हैं, परन्तु वस्त्र के आवरण से रहितता अर्थात् नग्नपना और जलस्नान आदि का न करना यही दूषण है' इत्यादि बुरे भावों को विशेष ज्ञान के बल से दूर करना वह भाव - निर्विचिकित्सा कहलाती है । इस व्यवहार निर्विचिकित्सा गुण को पालने के विषय में उद्दायन राजा तथा रुक्मिणी ( कृष्ण की पट्टराणी ) की कथा शास्र में प्रसिद्ध जाननी चाहिये । इसी व्यवहारनिर्विचिकित्सा गुण के बल से समस्त राग-द्वष आदि विकल्परूप तरङ्गों का त्याग करके, निर्मल आत्मानुभव रूप निजशुद्ध-आत्मा में जो स्थिति वही निश्चय निर्विचिकित्सागुण है ॥३॥ अब अमूढदृष्टि गुण को कहते हैं । वीतराग सर्वज्ञ देव-कथित शास्त्र से बहिरभूत कुदृष्टियों के द्वारा बनाये हुए तथा अज्ञानियों के चित्त में विस्मय को उत्पन्न करने वाले रसायन शास्त्र, खन्यवाद ( खानिविद्या ), हरमेखल, क्षुद्रविद्या, व्यन्तर विकुर्वणादि शास्त्रों को देखकर तथा सुनकर, जो कोई मृढभाव द्वारा धर्म-बुद्धि से उनमें प्रतीति तथा भक्ति नहीं करता, उसी को व्यवहार से 'अमूढदृष्टि' कहते हैं। इस विषय में, उत्तर मुथरा में उदुरुलि भट्टारक तथा रेवती श्राविका और चन्द्रप्रभ नामक विद्याधर ब्रह्मचारी सम्बन्धी कथायें शास्त्रों में प्रसिद्ध हैं। इसी व्यवहार अमूढ़ दृष्टि गुण के प्रसाद से आत्म-तत्त्व और शरीरादिक वहिर्तत्त्व का निश्चय हो जाने पर सम्पूर्ण मिथ्यात्व-राग आदि तथा शुभअशुभ संकल्प-विकल्पों से इष्टबुद्धि-आत्मबुद्धि-उपादेयबुद्धि-हितबुद्धि और ममत्वभाव को छोड़कर, मन-वचन-काय-गुप्ति के द्वारा विशुद्धज्ञानदर्शन स्वभावमयी निज आत्मा में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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