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________________ १७० ] बृहद्र्व्यसंग्रहः [गाथा ४१ जिनसमय प्रभावनां कृत्वा पश्चादवसाने त्रयस्त्रिंशदिवसपर्यन्तं निर्विकारपरमात्मभावनासहितं संन्यासं कृत्वाऽच्युताभिधानषोडशस्वर्गे प्रतीन्द्रतां याता । ततश्च निर्मलसम्यक्त्वफलं दृष्ट्वा धर्मानुरागेण नरके रावणलक्ष्मणयोः संबोधनं कृत्वेदानीं स्वर्गे तिष्ठति । अग्रे स्वर्गादागत्य सकलचक्रवर्ती भविष्यति । तौ च रावणलक्ष्मीधरौ तस्य पुत्रौ भविष्यतः । ततश्च तीर्थकरपादमूले पूर्वभवान्तरं दृष्ट्वा पुत्रद्वयेन सह परिवारेण च सह जिनदीक्षां गृहीत्वा भेदाभेदरत्नत्रयभावनया पञ्चानुत्तरविमाने त्रयोप्यहमिन्द्रा भविष्यन्ति । तस्मादागत्य रावणस्तीर्थकरो भविष्यति, सीता च गणधर इति , लक्ष्मीधरो धातकीखण्डद्वीपे तीर्थकरो भविष्यति । इति व्यवहारनिष्कांक्षितागुणो विज्ञातव्यः । निश्चयेन पुनस्तस्यैव व्यवहारनिष्काङ्क्षागुणस्य सहकारित्वेन दृष्टश्रुतानुभूतपञ्चेन्द्रियभोगत्यागेन निश्चयरत्नत्रयभावनोत्पन्नपारमार्थिकस्वात्मोत्थसुखामृतरसे चित्तसन्तोषः स एव निष्कांक्षा गुण इति ॥ २ ॥ अथ निर्विचिकित्सागुणं कथयति । भेदाभेदरत्नत्रयागधकभव्यजीवानां दुर्गन्धबीभत्सादिकं दृष्ट्वा धर्मबुद्धया कारुण्यभावेन वा यथायोग्यं विचिकित्सापरिहरणं द्रव्यनिर्विचिकित्सागुणो भण्यते । यत्पुन नसमये सर्व समीचीन परं द्वारा भेदाभेदरूप रत्नत्रय की भावना से बासठ वर्ष तक जिनमत की प्रभावना करके, अन्त्य समय में तैंतीस दिन तक निर्विकार परमात्मा के ध्यानपूर्वक समाधि-मरण करके अच्युत नामक सोहलवें स्वर्ग में प्रतीन्द्र हुई। वहाँ निर्मल सम्यग्दर्शन के फल को देखकर धर्म के अनुराग से नरक में जाकर सीता ने रावण और लक्ष्मण को सम्बोधा । सीता अब स्वर्ग में है। आगे सीता का जीव स्वर्ग से आकर सकल चक्रवर्ती होगा और वे दोनों रावण तथा लक्ष्मण के जीव उसके पुत्र होंगे। पश्चात् तीर्थंकर के पादमूल में अपने पूर्वभवों को देखकर, परिवार सहित दोनों पुत्र तथा सीता के जीव जिनदीक्षा ग्रहण करके, भेदाभेदरत्नत्रय की भावना से वे तीनों पंच-अनुत्तर विमान में अहमिन्द्र होंगे। वहाँ से आकर रावण तीर्थकर होगा और सीता का जीव गणधर होगा । लक्ष्मण धातकीखण्ड द्वीप में तीर्थंकर होंगे। इस प्रकार व्यवहार निष्कांक्षितगुण का स्वरूप जानना चाहिये । उसी व्यवहार निष्कांक्षा गुण की सहायता से देखे-सुने-अनुभव किये हुए पांचों इन्द्रिय-सम्बन्धी भोगों के त्याग से तथा निश्चय-रत्नत्रय की भावना से उत्पन्न हुए पारमार्थिक व निज-आत्मिक सुखरूपी अमृत रस में चित्त का संतोष होना, वही निश्चय से निष्कांक्षागुण है ॥ २ ॥ अब निर्विचिकित्सा गुण को कहते हैं । भेद-अभेदरूप रत्नत्रय के आराधक भव्य जीवों की दुर्गन्धि तथा बुरी आकृति आदि देखकर धर्मबुद्धि से अथवा करुणाभाव से यथा योग्य विचिकित्सा ( ग्लानि ) को दूर करना द्रव्य निर्विचिकित्सा गुण है। जैन मत में सब Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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