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________________ १७२] वृहद्रव्यसंग्रह [ गाथा ४१ ममत्वभावं त्यक्त्वा त्रिगुप्तिरूपेण विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावे निजात्मनि यन्निश्चलावस्थानं तदेवामूढदृष्टित्वमिति । सङ्कम्पविकल्पलक्षणं कथ्यते । पुत्रकलत्रादौ बहिर्द्रव्ये ममेदमिति कल्पना सङ्कल्पः, अभ्यन्तरे सुख्यहं दुःख्यहमिति हर्षविषादकारणं विकल्प इति । अथवा वस्तुवृत्या सङ्कल्प इति कोऽर्थो विकल्प इति तस्यैव पर्यायः।४। अथोपगृहनगुणं कथयति । भेदाभेदरत्नत्रयभावनारूपो मोक्षमार्गः स्वभावेन शुद्ध एव तावत् , तत्राज्ञानिजननिमिचेन तथैवाशक्तजननिमिरेन च धर्मस्य पैशुन्यं दूषणमपवादो दुष्प्रभावना यदा भवति तदागमाविरोधेन यथाशक्त्यार्थेन धर्मोपदेशेन वा यद्धर्मार्थ दोषस्य झम्पनं निवारणं क्रियते तद्व्यवहारनयेनोपगृहनं भण्यते । तत्र मायाब्रह्मचारिणा पार्श्वभट्टारकप्रतिमालग्नरत्नहरणे कृते सत्युपगूहनविषये जिनदत्तश्रेष्ठिकथा प्रसिद्धति । अथवा रुद्रजनन्या ज्येष्ठासंज्ञाया लोकापवादे जाते सति यद्दोषझम्पनं कृतं तत्र चेलिनीमहादेवीकथेति । तथैव निश्चयेन पुनस्तस्यैव व्यवहारोपगृहनगुणस्य सहकारित्वेन निजनिरञ्जननिर्दोषपरमात्मनः प्रच्छादका ये मिथ्यात्वरागादिदोषास्तेषां तस्मिन्नेव परमात्मनि सम्यग्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपं यद्धयानं तेन प्रच्छादनं विनाशनं गोपनं झम्पनं तदेवोपगृहनमिति ॥ ५ ॥ निश्चल ठहरना, निश्चय अमूढदृष्टि गुण है। संकल्प-विकल्प के लक्षण कहते हैं-पुत्र, स्त्री आदि बाह्य पदार्थों में 'ये मेरे हैं। ऐसी कल्पना, संकल्प है । अन्तरंग में 'मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूं' इस प्रकार हर्ष-विषाद करना, विकल्प है । अथवा संकल्प का वास्तव में क्या अर्थ है ? वह विकल्प ही है अर्थात् संकल्प, विकल्प की ही पर्याय है ॥४॥ अब उपगूहन गुण को कहते हैं । भेद-अभेद रत्नत्रय की भावनारूप मोक्षमार्ग स्वभाव से ही शुद्ध है तथापि उसमें ज़ब कभी अज्ञानी मनुष्य के निमित्त से अथवा धर्मपालन में असमर्थ पुरुषों के निमित्त से जो धर्म की चुगली, निन्दा, दूषण तथा अप्रभावना हो तब शास्त्र के अनुकूल, शक्ति के अनुसार, धन से अथवा धर्मोपदेश से, धर्म के लिये जो उसके दोपों का ढकना तथा दूर करना है, उसको व्यवहारनय से उपगूहन गुण कहते हैं । इस विषय में कथा-एक कपटी ब्रह्मचारी ने पार्श्वनाथ स्वामी की प्रतिमा में लगे हुए रत्न को चुराया । तब जिनदत्त सेठ ने जो उपगूहुन किया, वह कथा शास्त्रों में प्रसिद्ध है । अथवा रुद्र की ज्येष्ठा नामक माता की लोकनिन्दा होने पर, उसके दोष ढकने में चेलिनी महारानी की कथा शास्त्रप्रसिद्ध है । इस प्रकार व्यवहार उपगूहन गुण की सहायता से अपने निरंजन निर्दोष परमात्मा को आच्छादन करने वाले मिथ्यात्व-राग आदि दोषों को, उसी परमात्मा में सम्यक् श्रद्धान-ज्ञान-आचरणरूप ध्यान के द्वारा ढकना, नाशकरना, छिपाना तथा झम्पना वही निश्चय से उपगूहन है । ५ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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