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________________ गाथा ४१ ] तृतीयोऽधिकारः [ १६५ अभव्यसेनः पुनरेकादशाङ्गधारकोऽपि सम्यक्त्वं विना मिथ्याज्ञानी सञ्जात इति । एवं सम्यक्त्वमाहात्म्येन ज्ञानतपश्चरणव्रतोपशमध्यानादिकं मिथ्यारूपमपि सम्यग्भवति । तदभावे विषयुक्तदुग्धमिव सर्व वृथेति ज्ञातव्यम् । तच्च सम्यक्त्वं पञ्चविंशतिमलरहितं भवति तद्यथा-देवतामूढलोकमूढसमयमूढभेदेन मूढत्रयं भवति । तत्र क्षुधाद्यष्टादशदोषरहितमनन्तज्ञानाद्यनन्तगुणसहितं वीतरागसर्वज्ञदेवतास्वरूपमजानन् ख्यातिपूजालाभरूपलावण्यसौभाग्यपुत्रकलत्रराज्यादिविभूतिनिमित्त रागद्वषोपहताशेरौद्रपरिणतक्षेत्रपालचण्डिकादिमिथ्यादेवानां यदाराधनं करोति जीवस्तद्देवतामूढत्वं भण्यते । न च ते देवाः किमपि फलं प्रयच्छन्ति । कथमिति चेत् ? रावणेन रामस्वामिलक्ष्मीधरविनाशार्थ बहुरूपिणी विद्या साधिता, कौरवैस्तु पाण्डवनिर्मूलनार्थ कात्यायनी विद्या साधिता, कंसेन च नारायणविनाशार्थ बढयोऽपि विद्याः समाराधितास्ताभिः कृतं न किमपि रामस्वामिपाण्डवनारायणानाम् । तैस्तु यद्यपि मिथ्यादेवता 'नानुकूलितास्तथापि निर्मलसम्यक्त्वोपार्जितेन पूर्वकृतपुण्येन सर्व निर्विघ्नं जातमिति । अथ लोकमढ अंगों का पाठी भी अभव्यसेन मुनि सम्यक्त्व के बिना मिथ्याज्ञानी ही रहा। इस प्रकार सम्यक्त्व के माहात्म्य से मिथ्याज्ञान, तपश्चरण, व्रत, उपशम, (समता, कषायों की मंदता) ध्यान आदि वे सब सम्यक हो जाते हैं । विष मिले हुए दुग्ध के समान, सम्यक्त्व के बिना ज्ञान तपश्चरणादि सब वृथा है, ऐसा जानना चाहिए । वह सम्यक्त्व पच्चीस दोपों से रहित होता है। उन पच्चीस दोषों में देवमूढ़ता, लोकमूढ़ता तथा समयमूढ़ता ये तीन मूढ़ता हैं । क्षुधा तृषा आदि अठारह दोषरहित, अनन्तज्ञान आदि अनन्तगुण सहित वीतराग सर्वज्ञ देव के स्वरूप को न जानता हुआ जो व्यक्ति ख्याति-पूजा-लाभ-रूप-लावण्य-सौभाग्य-पुत्र-स्त्री-राज्य आदि सम्पदा की प्राप्ति के लिये, रागद्वष युक्त तथा आर्त रौद्र ध्यानरूप परिणामों वाले क्षेत्रपाल चंडिका आदि मिथ्या दृष्टि देवों की, आराधना करता है; उस आराधना को 'देवमूढता' कहते हैं। वे देव कुछ भी फल नहीं देते । प्रश्न-फल कैसे नहीं देते ? उत्तर-रामचन्द्र और लक्ष्मण के विनाश के लिये रावण ने बहुरूपिणी विद्या सिद्ध की; कौरवों ने पांडवों का सत्तानाश करने के लिये कात्यायनी विद्या सिद्ध की; तथा कंस ने कृष्ण नारायण के नाश के लिये बहुत सी विद्याओं की आराधना की; परन्तु उन विद्याओं द्वारा रामचन्द्र, पांडव और कृष्णनारायण का कुछ भी अनिष्ट नहीं हुआ । रामचन्द्र आदि ने मिथ्यादृष्टि देवों की आराधना नहीं की, तो भी निर्मल सम्यग्दर्शन से उपार्जित पूर्व भव के पुण्य द्वारा उनके सब विघ्न दूर हो गये। अब १ 'आराधना न कृता' इतिपाठान्तरं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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