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१६६ ] वृहद्रव्यसंग्रहः
[ गाथा ४१ त्वं कथयति । गङ्गादिनदीतीर्थस्नानसमुद्रस्नानप्रातःस्नानजलप्रवेशमरणाग्निप्रवेशमरणगोग्रहणादिमरणभूम्यग्निवटवृक्षपूजादीनि पुण्यकारणानि भवन्तीति यद्वदन्ति तल्लोकमूढत्वं विशेयम् । अन्यदपि लौकिकपारमार्थिकहेयोपादेयस्वपरज्ञानरहितानामज्ञानिजनानां प्रवाहेन यद्धर्मानुष्ठानं तदपि लोकमूढत्वं विज्ञेयमिति । अथ समयमूढत्वमाह । अज्ञानिजनचित्त चमत्कारोत्पादकं ज्योतिष्कमन्त्रवादादिकं दृष्ट्वा वीतरागसर्वज्ञप्रणीतसमयं विहाय कुदेवागमलिङ्गिनां भयाशास्नेहलोभैर्धार्थ प्रणामविनयपूजापुरस्कारादिकरणं समयमूढत्वमिति । एवमुक्तलक्षणं मूढत्रयं सरागसम्यग्दृष्टयवस्थायां परिहरणीयमिति । त्रिगुप्तावस्थाल-क्षणवीतरागसम्यक्त्वप्रस्तावे पुनर्निजनिरञ्जननिर्दोषपरमात्मैव देव इति निश्चयबुद्धिर्देवतामूढरहितत्वं विज्ञेयम् । तथैव च मिथ्यात्वरागादिमूढभावत्यागेन स्वशुद्धात्मन्येवावस्थानं लोकमूढरहितत्वं विज्ञेयम् । तथैव च समस्तशुभाशुभसङ्कल्पविकल्परूपपरभावत्यागेन निर्विकारताविकपरमानन्दैकलक्षणपरमसमरसीभावेन तस्मिन्नेव सम्यग्रूपेणायनं गमनं परिणमनं समयमूढरहितत्वं वोद्धव्यम् । इति मूढत्रयं व्याख्यातम् ।
लोकमूढ़ता को कहते हैं-'गंगा आदि नदीरूप तीर्थों में स्नान, समुद्र में स्नान, प्रातःकाल में स्नान, जल में प्रवेश करके मरना, अग्नि में जलकर मरना, गाय की पूँछ आदि को ग्रहण करके मरना, पृथिवी-अग्नि और बड़ वृक्ष आदि की पूजा करना, ये सब पुण्य के कारण हैं' इस प्रकार जो कहते हैं उसको लोकमूढ़ता जानना चाहिए। लौकिक-पारमार्थिक, हेय उपादेय व स्वपरज्ञान रहित अज्ञानी जनों के कुल परिपाटि से आया हुआ और अन्य भी जो धर्म आचरण है उसको भी लोकमूढ़ता जाननी चाहिए। अब समयमूढ़ता ( शास्त्रमूढ़ता या धर्ममूढ़ता) को कहते हैं-अज्ञानी लोगों को चित्त-चमत्कार ( आश्चर्य ) उत्पन्न करने वाले ज्योतिष, मंत्रवाद आदि को देखकर, वीतराग सर्वज्ञ द्वारा कहे हुए धर्म को छोड़कर, मिथ्यादेवों को, मिथ्या-आगम को और खोटां तप करने वाले कुलिंगियों को भय-वांछा-स्नेह
और लोभ से धर्म के लिये प्रणाम, विनय, पूजा, सत्कार आदि करना, सो 'समयमूढ़ता है। इन उक्त तीन मूढ़ताओं को सरागसम्यग्दृष्टि अवस्था में त्यागना चाहिए । मन-वचन-कायगुप्ति रूप अवस्था वाले वीतराग सम्यक्त्व के प्रकरण में, अपना निरंजन तथा निर्दोष परमात्मा ही देव है' ऐसी निश्चय बुद्धि ही देवमूढ़ता का अभाव जानना चाहिए। तथा मिथ्यात्व राग आदि रूप मूढभावों का त्याग करने से जो निज शुद्ध-आत्मा में स्थिति है, वही लोकमूढ़ता से रहितता है । इसी प्रकार सम्पूर्ण शुभ-अशुभ संकल्प-विकल्प रूप परभावों के त्याग से तथा निर्विकार-वास्तविक-परमानन्दमय परम-समता-भाव से निज शुद्ध-आत्मा में ही जो सम्यक् प्रकार से अयन, गमन अथवा परिणमन है, उसको समयमूढ़ता का त्याग समझना चाहिये । इस प्रकार तीन मूढ़ता का व्याख्यान हुआ।
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