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वृहद्द्रव्यसंग्रहः
[ गाथा ४१
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इतो विस्तरः- सम्यक्त्वे सति ज्ञानं सम्यग्भवतीति यदुक्त तस्य विवरणं क्रियते । तथाहि – गोतमाग्निभूतिवायुभूतिनामानो विप्राः पञ्चपञ्चशतत्राह्मणोपाध्याया वेदचतुष्टयं, ज्योतिष्क व्याकरणादिषडङ्गानि, मनुस्मृत्याद्यष्टादशस्मृतिशास्त्राणि तथा भारताद्यष्टादशपुराणानि मीमांसान्यायविस्तर इत्यादिलौकिक सर्वशास्त्राणि यद्यपि जानन्ति तथापि तेषां हि ज्ञानं सम्यक्त्वं विना मिथ्याज्ञानमेव । 'यदा पुनः प्रसिद्ध कथान्यायेन श्रीवीरवर्द्धमानस्वामितीर्थकर परमदेव समवसरणे मानस्तम्भावलोकनमात्रादेवागमभाषया दर्शनचारित्र मोहनीयोपशमक्षयसंज्ञेनाध्यात्मभाषया स्वशुद्धात्माभिमुखपरिणामसंज्ञेन च कालादिलब्धिविशेषेण मिथ्यात्वं विलयं गतं तदा तदेव मिथ्याज्ञानं सम्यग्ज्ञानं जातम् । ततश्च 'जयति भगवान्' इत्यादि नमस्कारं कृत्वा जिनदीक्षां गृहीत्वा कचलोचानन्तरमेव चतुर्ज्ञान सप्तर्द्धिसम्पन्नास्त्रयोऽपि गणधर देवाः संजाताः । गौतमस्वामी भव्योपकारार्थं द्वादशाङ्गश्रुतरचनां कृतवान् ; पश्चान्निश्चयरत्नत्रय भावनाबलेन त्रयोऽपि मोक्षं गताः । शेषः पञ्चदशशत प्रतिब्राह्मणा जिनदीक्षां गृहीत्वा यथासम्भवं स्वर्गं मोक्षं च गताः ।
आदिक के स्पर्श होने पर, यह निश्चय न होना कि किसका स्पर्श हुआ है - ऐसा विभ्रम (अनध्यवसाय) ज्ञान तथा सीप के टुकड़े में चांदी का ज्ञान - ऐसा विमोह (विपर्यय) ज्ञान, इन तीनों दोषों से (दूषित ज्ञानों से ) रहित हो जाने से वह ज्ञान सम्यक् हो जाता है ।
विस्तार से वर्णन - 'सम्यग्दर्शन होने पर ज्ञान सम्यग्ज्ञान होता है' यह जो कहा गया है, उसका विवरण कहते हैं - पांचसौ - पांचसौ ब्राह्मणों के पढ़ाने वाले गौतम, अग्निभूति और वायुभूति नामक तीन ब्राह्मण विद्वान् चारों वेद - ज्योतिष्क- व्याकरण आदि छहों अंग, मनुस्मृति आदि अठारह स्मृति ग्रन्थ, महाभारत आदि अठारह पुराण तथा मीमांसा न्यायविस्तर आदि समस्त लौकिक शास्त्रों के ज्ञाता थे तो भी उनका ज्ञान, सम्यक्त्व के बिना मिथ्याज्ञान ही था । परन्तु जब वे प्रसिद्ध कथा के अनुसार श्री महावीर स्वामी तीर्थंकर परम देव के समवसरण में मानस्तंभ के देखने मात्र से ही आगम-भाषा में दर्शन मोहनीय तथा चारित्र मोहनीय के उपशम, क्षय तथा क्षयोपशम से और अध्यात्म भाषा में निज शुद्धआत्मा के सन्मुख परिणाम तथा काल आदि लब्धियों के विशेष से उनका मिध्यात्व नष्ट हो गया, तब उनका वही मिथ्याज्ञान सम्यग्ज्ञान हो गया । सम्यग्ज्ञान होते ही 'जयति भगवान्' इत्यादि रूप से भगवान् को नमस्कार करके, श्री जिनेन्द्री दीक्षा धारण करके केशलोंच के अनन्तर ही मति - श्रुत- अवधि और मन:पर्यय इन चार ज्ञान तथा सात ऋद्धि के धारक होकर तीनों ही गणधर हो गये । गोतमस्वामी ने भव्यजीवों के उपकार के लिये द्वादशाङ्गश्रुत की रचना की, फिर वे तीनों ही निश्चयरत्नत्रय की भावना के बल से मोक्ष को प्राप्त हुए। वे पंद्रह सौ ब्राह्मण शिष्य मुनि दीक्षा लेकर यथासम्भव स्वर्ग या मोक्ष में गये । ग्यारह
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