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गाथा ३७ ]
द्वितीयोऽधिकारः
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व्याख्या - यद्यपि सामान्येन निरवशेषनिराकृत कर्ममलकलङ्कस्याशरीरस्यात्मन श्रात्यन्तिकस्वाभाविका चिन्त्याद्भुतानुपमसकल विमलकेवलज्ञानाद्यनन्तगुयास्पदमवस्थान्तरं मोक्षो भण्यते तथापि विशेषेण भावद्रव्यंरूपेण द्विधा भवतीति वार्तिकम् । तद्मथा – “यो स भावमुक्खो" रोयो ज्ञातव्यः स भावमोक्षः । स कः ? " अपणो हु परिणामो" निश्चयरत्नत्रयात्मक कारणसमयसाररूपो “हु" स्फुटमात्मनः परिणामः । कथंभूतः १ " सव्वस्स कम्मणो जो खयहेदु" सर्वस्य द्रव्यभावरूपमोहनीयादिघातिचतुष्टय कर्मणो यः क्षयहेतुरिति । द्रव्यमोक्षं कथयति । “दव्चविमुक्खो" अयोगिचरमसमये द्रव्यविमोक्षो भवति । कोऽसौ ? “कम्मपुहभावो" टङ्कोत्कीर्णशुद्धबुद्धैकस्वभावपरमात्मन श्रायुरादिशेषाघातिकर्मणाआत्यन्तिकपृथग्भावो विश्लेषो विघटनमिति ।
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तस्य मुक्तात्मनः सुखं कथ्यते । " आत्मोपादानसिद्ध स्वयमतिशयवद्वीतबाधं विशालं वृद्धिहासव्यपेतं विषयविरहितं निःप्रतिद्वन्द्वभावम् । अन्यद्रव्यानपेक्षं निरुपमममितं शाश्वतं सर्वकामुत्कृष्टानंतसारं परमसुखमतस्तस्य सिद्धस्य जातं |१| '
वृत्त्यर्थ :--यद्यपि सामान्य रूप से सम्पूर्णतया कर्ममल - कलंक -रहित, शरीर रहित आत्मा के आत्यन्तिक - स्वाभाविक - अचिन्त्य - अद्भुत तथा अनुपम सकल विमल केवलज्ञान आदि अनन्त गुणों का स्थान रूप जो अवस्थान्तर है, वही मोक्ष कहा जाता है; फिर भी भाव और द्रव्य के भेद से, वह मोक्ष दो प्रकार का होता है, यह वार्त्तिक पाठ है । सो इस प्रकार है - 'यो स भावमुक्खो' वह भावमोक्ष जानना चाहिए। वह कौन ?. 'अप्पो हु परिणामो' निश्चय रत्नत्रय रूप कारण समयसार रूप आत्म-परिणाम | वह आत्मा का परिणाम कैसा है ? 'सव्वस्स कम्मरगो जो खयहेदू' सब द्रव्य - भावरूप मोहनीय आदि चार घातियाकर्मों के नाश का जो कारण है । द्रव्यमोक्ष को कहते हैं - 'दव्वविमुक्खो'
योगी गुणस्थान के अन्त समय में द्रव्यमोक्ष होता है । वह द्रव्यमोक्ष कैसा है ? 'कम्मपुहभावो' टंकोत्कीर्ण शुद्ध-बुद्ध एक स्वभाव स्वरूप परमात्मा से, आयु आदि शेष चार अघातिया कर्मों का भी सर्वथा पृथक होना, भिन्न होना या विघटना, सो द्रव्यमोक्ष है ।
उस मुक्तात्मा के सुख का वर्णन करते हैं- 'आत्मा - उपादान कारण से सिद्ध, स्वयं अतिशययुक्त, बाधा से शून्य, विशाल, वृद्धि-हास से रहित, विषयों से रहित, प्रतिद्वन्द्व (प्रतिपक्षता) से रहित, अन्य द्रव्यों से निरपेक्ष, उपमा रहित, अपार, निंत्य, सर्वदा उत्कृष्ट तथा अनन्त सारभूत परमसुख उन सिद्धों के होता है । १ । '
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