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________________ १५४] वृहद्र्व्यसंग्रहः [ गाथा ३७ कश्चिदाह-इन्द्रियसुखमेव सुखं, मुक्तात्मनामिन्द्रियशरीराभावे पूर्वोक्तमतीन्द्रियसुखं कथं घटत इति ? तत्रोत्तरं दीयते - सांसारिकसुखं तावत् स्त्रीसेवादिपञ्चेन्द्रियविषयप्रभवमेव, यत्पुनः पञ्चेन्द्रियविषयव्यापाररहितानां निर्व्याकुलचित्तानां पुरुषाणां सुखं तदतीन्द्रियसुखमत्रैव दृश्यते । पञ्चेन्द्रियमनोजनितविकल्पजालरहितानां निर्विकल्पसमाधिस्थानां परम योगिनां रागादिरहितत्वेन स्वसंवेद्यमात्मसुखं तद्विशेषेणातीन्द्रियम् । यच्च भावकर्मद्रव्यकर्मनोकर्मरहितानां सर्वप्रदेशाहादैकपारमार्थिकपरमानन्दपरिणतानां मुक्तात्मनामतीन्द्रियसुखं तदत्यन्तविशेषेण ज्ञातव्यम् । अत्राह शिष्यः-संसारिणां निरन्तरं कर्मबन्धोस्ति, तथैवोदयोऽप्यस्ति, शुद्धात्मभावनाप्रस्तावो नास्ति, कथं मोक्षो भवतीति ? तत्र प्रत्युत्तरं-यथा शत्रोः क्षीणावस्थां दृष्ट्वा कोऽपि धीमान् पर्यालोचयत्ययं मम हनने प्रस्तावस्ततः पौरुषं कृत्वा शत्रु हन्ति । तथा कर्मणामप्येकरूपोवस्था नास्ति, हीयमानस्थित्यनुभागत्वेन कृत्वा यदा लघुत्वं क्षीणत्वं भवति तदा धीमान् भव्य आगमभाषया 'खयउवसमिय विसोही देसण पाउग्ग करणलद्धी य । चत्तारि वि सामण्णा करणं पुण होइ सम्म ।१।' शंका-जो सुख इन्द्रियों से उत्पन्न होता है, वही सुख है; सिद्ध जीवों के इन्द्रियों तथा शरीर का अभाव है, इसलिये पूर्वोक्त अतीन्द्रिय सुख सिद्धों के कैसे हो सकता है ? इसका उत्तर देते हैं-सांसारिक सुख तो स्त्री सेवन आदि पाँचों इन्द्रियों के विषयों से ही उत्पन्न होता है, किन्तु पांचों इन्द्रियों के विषयों के व्यापार से रहित तथा निर्व्याकुल चित्त वाले पुरुषों को जो सुख है, वह अतीन्द्रिय सुख है, वह इस लोक में भी देखा जाता है। पांचों इन्द्रियों तथा मन से उत्पन्न होने वाले विकल्पों से रहित तथा निर्विकल्प ध्यान में स्थित परम योगियों के राग आदि के अभाव से जो स्वसंवेद्य (अपने अनुभव में आने वाला) आत्मिक सुख है वह विशेष रूप से अतीन्द्रिय सुख है । भावकर्म, द्रव्यकर्म व नोकर्म से रहित आत्मा के समस्त प्रदेशों में आह्लाद रूप पारमार्थिक परम सुख में परिणत मुक्त जीवों के जो अतीन्द्रिय सुख है, वह अत्यन्त विशेष रूप से अतीन्द्रिय है। यहाँ शिष्य कहता है-संसारी जीवों के निरन्तर कर्मों का बंध होता है, इसी प्रकार कर्मों का उदय भी सदा होता रहता है, शुद्ध आत्म-ध्यान का प्रसंग ही नहीं। तब मोक्ष कैसे होती है ? इसका उत्तर देते हैं जैसे कोई बुद्धिमान् , शत्रु की निर्बल अवस्था देखकर विचार करता है कि 'यह मेरे मारने का अवसर है', इसलिये पुरुषार्थ करके शत्रु को मारता है। इसी प्रकार कर्मों की भी सदा एक रूप अवस्था नहीं रहती, स्थिति और अनुभाग की न्यूनता होने पर जब कर्म लघु अर्थात् क्षीण होते हैं, तब बुद्धिमान् भव्य जीव, आगम भाषा से 'क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करण ये पांच लब्धियाँ हैं, इनमें चार तो सामान्य हैं (सभी जीवों को हो सकती हैं), करण लब्धि सम्यक्त्व होने के समय होती Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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