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१५२ ] वृहद्र्व्य संग्रह
[ गाथा ३७ स च कूपे पतनं सादिकं वा न जानाति, तस्य विनाशे दोषो नास्ति । यस्तु प्रदीपहस्तस्तस्य कूपपतनादिविनाशे प्रदीपफलं नास्ति। यस्तु कूपपतनादिकं त्यजति तस्य प्रदीपफलमस्ति । तथा कोऽपि रागादयो हेया मदीया न भवन्तीति भेदविज्ञानं न जानाति स कर्मणा बध्यते तावत् , अन्यः कोऽपि रागादिभेदविज्ञाने जातेऽपि यावतांशेन रागादिकमनुभवति तोवतांशेन सोऽपि बध्यत एव, तस्यापि रागादिभेदविज्ञानफलं नास्ति । यस्तु रागादिभेदविज्ञाने जाते सति रागादिकं त्यजति तस्य भेदविज्ञानफलमस्तीति ज्ञातव्यम् । तथा चोक्त- 'चक्खुस्स दंसएस्स य सारो सप्पादिदोसपरिहारणं । चक्खू होइ णिरत्थं दट्टण विले पडतस्स' ॥ ३६ ॥ एवं निर्जराव्याख्याने सूत्रेणैकेन चतुर्थस्थलं गतम् ।
अथ मोक्षतत्वमावेदयति :सव्वस्स कम्मणो जो खयहेदू अप्पणो हु परिणामो। णेयो स भावमुक्खो दव्वविमुक्खो य कम्मपुहभावो ॥ ३७॥ सर्वस्य कर्मणः यः क्षयहेतुः आत्मनः हि परिणामः । ज्ञेयः सः भावमोक्षः द्रव्यविमोक्षः च कर्मपृथग्भावः ॥ ३७ ॥
उसका दोष नहीं । हाथ में दीपक वाले मनुष्य का कुए में गिरने आदि से नाश होने पर, दीपक का कोई फल नहीं हुआ । जो कूपपतन आदि से बचता है उसके दीपक का फल है। इसी प्रकार जो कोई मनुष्य 'राग आदि हेय हैं, मेरे नहीं हैं। इस भेद-विज्ञान को नहीं जानता, वह तो कर्मों से बंधता ही है। दूसरा कोई मनुष्य भेद-विज्ञान के होने पर भी जितने अंशों में रागादिक का अनुभव करता है, उतने अंशों से वह भेद-विज्ञानी भी बंधता ही है; उसके रागादि के भेद-विज्ञान का भी फल नहीं है । जो राग आदिक भेद-विज्ञान होने पर राग आदि का त्याग करता है उसके भेद-विज्ञान का फल है, ऐसा जानना चाहिए। सो ही कहा है-'मार्ग में सर्प आदि से बचना, नेत्रों से देखने का यह फल है; देखकर भी सर्प के बिल में पड़ने वाले के नेत्र निरर्थक हैं। ॥३६॥ इस प्रकार निर्जरा तत्त्व के व्याख्यान में एक सूत्र द्वारा चौथा स्थल समाप्त हुआ।
अब मोक्षतत्त्व को कहते हैं:
गाथार्थ :-सब कर्मों के नाश का कारण जो आत्मा का परिणाम है, उसको भाव मोक्ष जानना चाहिए । कर्मों का आत्मा से सर्वथा पृथक होना, द्रव्यमोक्ष है । ३७ ।
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