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________________ गाथा ३६] द्वितीयोऽधिकारः [१५१ __अत्राह शिष्यः-सविपाकनिर्जरा नरकादिगतिष्वज्ञानिनानामपि दृश्यते संज्ञानिनामेवेति नियमो नास्ति । तत्रौत्तरम् - अत्रैवमोक्षकारणं या संवरपूर्विका निर्जरा सैव गाया। या पुनरज्ञानिनां निर्जरा सा गजस्नानवन्निष्फला । यतः स्तोकं कर्म निर्जरयति बहुतरं बध्नाति, तेन कारनेन सा न गाह्या । या तु सरागसदृष्टीनां निर्जरा सा यद्यप्यशुभकर्मविनाशं करोति तथापि संसारस्थिति स्तोकां कुरुते । तद्भवे तीर्थकरप्रकृत्यादिविशिष्टपुण्यबन्धकारणं भवति पारम्पर्येण मुक्तिकारणं चेति । वीतरागसदृष्टीनां पुनः पुण्यंपापद्वयविनाशे तद्भवेऽपि मुक्तिकारणमिति । उक्त च श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेवः 'जं अण्णोणी कम्मं खवेदि भवसदसहस्सकोडीहिं । तं णाणी तिहिं गुत्तो खवेदि उस्सासमेण । १।' कथिदाहसदृष्टीनां वीतरागविशेषणं किमर्थ, 'रागादयो हेयो, मदीया न भवन्ति' इति भेदविज्ञाने जाते सति रागानुभवेऽपि ज्ञानमात्रेण मोक्षो भवतीति । तत्र परिहारः । अन्धकारे पुरुषद्वयम् एकः प्रदीपहस्तस्तिष्ठति, अन्यः पुनरेकः प्रदीपरहितस्तिष्ठति । यहाँ शिष्य पूछता है कि जो सविपाक निर्जरा, है वह तो नरक आदि गतियों में अज्ञानियों के भी होती हुई देखी जाती है। इसलिये सम्यग्ज्ञानियों के सविपाक निर्जरा होती है, यह नियम नहीं है । इसका उत्तर यह है-यहाँ (मोक्ष प्रकरण में) जो संवर-पूर्वक निर्जरा है उसी को ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि वही मोक्ष का कारण है। और जो अज्ञानियों के निर्जरा होती है वह तो गजस्नान ( हाथी के स्नान ) के समान निष्फल है। क्योंकि अज्ञानी जीव थोड़े कर्मों की तो निर्जरा करता है और बहुत से कर्मों को बाँधता है। इस कारण अज्ञानियों की निर्जरा का यहाँ ग्रहण नहीं है । सराग सम्यग्दृष्टियों के जो निर्जरा है, वह यद्यपि अशुभ कर्मों का नाश करती है, (शुभ कर्मों का नाश नहीं करती) फिर भी संसार की स्थिति को थोड़ा करती है अर्थात् जीव के संसार भ्रमण को घटाती है। उसी भव में तीर्थकर प्रकृति आदि विशिष्ट पुण्य बंध का कारण हो जाती है और परम्परा से मोक्ष का कारण है । वीतराग सम्यग्दृष्टियों के पुण्य तथा पाप दोनों का नाश होने पर उसी भव में वह निर्जरा मोक्ष का कारण होती है। सो ही श्री कुन्दकुन्द आचार्य देव ने कहा है-'अज्ञानी जिन कर्मों का एक लाख करोड़ वर्षों में नाश करता है, उन्हीं कर्मों को ज्ञानी जीव मन-वचन-काय की गुप्ति द्वारा एक उच्छवास मात्र में नष्ट कर देता है । १।' यहाँ कोई शंका करता है कि सम्यग्दृष्टियों के 'वीतराग' विशेषण किस लिये लगाया है, क्योंकि 'राग आदि भाव हेय हैं, ये मेरे नहीं हैं। ऐसा भेद-विज्ञान होने पर, उसके राग का अनुभव होते हुए भी ज्ञानमात्र से ही मोक्ष हो जाती है ? समाधान-अन्धकार में दो मनुष्य है, एक के हाथ में दीपक है और दूसरा बिना दीपक के है । उस दीपक रहित पुरुष को, कुएं तथा सर्प आदि का ज्ञान नहीं होता, इसलिये कुएं आदि में गिरकर नाश होने में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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