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________________ गाथा ३५] द्वितीयोऽधिकारः [ १२३ शन्ती तस्यैवार्धप्रदक्षिणं कृत्वा हरित्पूर्वसमुद्रम् गता । तथैव महाहिमवत्पर्वतस्थमहापद्मनामहदादुत्तरदिग्विभागेनागत्य तमेव नाभिगिरि योजनार्धनास्पृशन्ती तस्यैवार्धप्रदक्षिणं कृत्वा हरिकान्तानामनदी पश्चिमसमुद्रम् गता। इति हरिद्धरिकांतासंझं नदीद्वयं हरिसंज्ञमध्यमभोगभूमिक्षेत्रे विज्ञेयम् । अथ नीलपर्वतस्थितकेसरिनामहृदोदक्षिणेनागत्योत्तरकुरुसंज्ञोत्कृष्टभोगभमिक्षेत्रे मध्येन गत्वा मेरुसमीपे गजदन्तपर्वतं भित्वा च प्रदक्षिणेन योजनार्धेन मेरु विहाय पूर्वभद्रशालवनस्य मध्येन पूर्वविदेहस्य च मध्येन शीतानामनदी पूर्वसमुद्र गता । तथैव निषधपर्वतस्थिततिगिञ्छदादुत्तरदिग्विभागेनागत्य देवकुरुसंज्ञोत्तमभोगमिक्षेत्रमध्येन गत्वा मेरुसमीपे गजदन्वपर्वतं भित्वा च प्रदक्षिणेन योजनार्धेन मेरु विहाय पश्चिमभद्रशालवनस्य मध्येन पश्चिमविदेहस्य च मध्येन शीतोदा पश्चिमसमुद्र गता। एवं शीताशीतोदासंशं नदीद्वयं विदेहाभिधाने कर्मभूमिक्षेत्रे ज्ञातव्यम् । यत्पूर्व गङ्गासिन्धुनदीद्वयस्य विस्तारावगाहप्रमाणं भणितं तदेव क्षेत्रे क्षेत्रे नदीयुगलं प्रति विदेहपर्यन्तं द्विगुणं द्विगुणं ज्ञातव्यम् । अथ गङ्गा चतुर्दशसहस्रपरिवारनदीसहिता, सिन्धुरपि तथा, त द्विगुणसंख्यानं रोहिद्रोहितास्याद्वयम् , ततोऽपि द्विगुणसंख्यानं हरिद्धरिकान्ताद्वयम् , तद्विगुणं शीताशोतोदाद्वयमिति । तथा षड्विंशत्यधिकयोज वत् पर्कात के महा पद्म हद से उत्तर दिशा की ओर आकर, उसी नाभिगिरि को आधे योजन तक न स्पर्शती हुई अर्ध प्रदक्षिणा देकर, पश्चिम समुद्र में गई है। ऐसे हरित् और हरिकान्ता नामक दो नदियाँ हरि नामक मध्य-भोग-भूमि क्षेत्र में हैं । शीता नदी नील पर्वत के केसरी हृद से दक्षिण को आकर, उत्तरकुरु नामक उत्कृष्ट भोगभूमि क्षेत्र के बीच में हो कर, मेरु के पास आकर, गजदन्त पर्वत को भेदकर और मेरु की प्रदक्षिणा से आधे योजन तक दूर रह कर, पूर्वा भद्रशालवन और पूर्व विदेह के मध्य में होकर, पूर्वा समुद्र को गई है । इसी प्रकार शीतोदा नदी निषधपर्वत के तिगिंछह्रद से उत्तर को आकर, देवकुरु नामक उत्तम भोगभूमि क्षेत्र के बीच में से जाकर, मेद के पास गजदन्त पर्णत को भेद कर और मेरु की प्रदक्षिणा से आधे योजन दूर रह कर, पश्चिम भद्रशालवन के और पश्चिम विदेह के मध्य में गमन करके, पश्चिम समुद्र को गई है। ऐसे शीता और शीतोदा नामक नदियों का युगल विदेह नामक कर्मभूमि के क्षेत्र में जानना चाहिये। जो विस्तार और अवगाह का प्रमाण पहले गंगा-सिंधु नदियों का कहा है, उससे दूना दूना विस्तार आदि, प्रत्येक क्षेत्र में, नदियों के युगलों का विदेह तक जानना चाहिये । गङ्गा चौदह हजार परिवार की नदियों सहित है। इसी प्रकार सिंधु भी चौदह हजार नदियों की धारक है । इनसे दूनी परिवार नदियों की धारक रोहित व रोहितास्या है। हरित-हरिकान्ता का इससे भी दूना परिवार है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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