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________________ १२२ ] वृहद्रव्यसंग्रहः [ गाथा ३५ निर्गत्य तत आर्यखण्डद्ध भागे पूर्वेण व्यावृत्य प्रथमावगाहापेक्षया दशगुणेन गव्यूतिपञ्चकावगाहेन तथैव प्रथमविष्कम्भापेक्षया दशगुणेन योजनाद्ध सहितविषष्टियोजनप्रमाणविस्तारेण च पूर्वसमुद्र प्रविष्टा गङ्गा । तथा गङ्गावत्सिन्धुरपि तस्मादेव हिमवत्पर्वतस्थपद्महदात्पर्वतस्यैवोपरि पश्चिमद्वारेण निर्गत्य पश्चादक्षिणदिग्विभागेनागत्य विजयाद्ध गुहाद्वारेण निर्गत्यार्य खण्डा भोगे पश्चिमेन व्यावृत्य पश्चिमसमुद्र प्रविष्टेति । एवं दक्षिणदिग्विभागसमागतगङ्गासिन्धुभ्यां पूर्वापरायतेन विजयाद्ध पर्वतेन च षट्खण्डीकृतं भरत क्षेत्रम् | अथ महाहिमवत्पर्व तस्थमहापद्महदाद्दक्षिणदिग्विभागेन हैमवत क्षेत्रमध्ये समागत्य तत्रस्थनाभिगिरिपर्वतं योजनाद्धे नास्पृशन्ती तस्यैवार्धे प्रदक्षिणं कृत्वा रोहित्पूर्वसमुद्रम् गता । तथैव हिमवत्पर्वत स्थित पद्महदादुत्तरेणागत्य तमेव नाभिगिरिं योजनार्थेन स्पृशन्ती तस्यैवार्द्ध प्रदक्षिणं कृत्वा रोहितास्या पश्चिमसमुद्र ं गता । इति रोहिद्रोहितास्यासंज्ञं नदीद्वन्द्वं हैमवतसंज्ञजघन्यभोग भूमिक्षेत्रे ज्ञातव्यम् । अथ निषेधपर्वतस्थितति गिञ्छनामहदाद्दक्षिणेनागत्य नाभिगिरिपर्वतं योजनार्धनास्पृ से दशगुणी अर्थात् साढ़े बासठ योजन चौड़ी गङ्गा नदी पूर्ण समुद्र प्रवेश करती है । इस गङ्गा की भांति सिंधु नामक महानदी भी उसी हिमवत् पति पर विद्यमान पद्म हृद के पश्चिम द्वार से निकलकर पर्वत पर ही गमन करके फिर दक्षिण दिशा को आकर विजयार्द्ध Sat गुफा के द्वार से निकलकर, आर्यखंड के अर्धभाग में पश्चिम को मुड़कर पश्चिम समुद्र में प्रवेश करती है । इस प्रकार दक्षिण दिशा को आई हुई गंगा और सिंधु दो नदियों से और पूर्व-पश्चिम लम्बे विजयार्द्ध पर्वत से भरत क्षेत्र छ: खंड वाला किया गया अर्थात् भरत के छ: खंड हो जाते हैं । महा हिमवत् त पर स्थित महा पद्म नामक हृद के दक्षिण दिशा की ओर से हैमवत् क्षेत्र के मध्य में आकर, वहाँ पर स्थित नाभिगिरि पर्वत को आधा योजन से न छूती हुई (पर्वत से आधा योजन दूर रहकर ), उसी पति की आधी प्रदक्षिणा करती हुई रोहितनामा नदी पूर्व समुद्र को गईं है । इसी प्रकार रोहितास्या नदी हिमवत् फति के पद्म हृद से उत्तर को आकर, उसी नाभिगिरि से आधा योजन दूर रहती हुई, उसी फर्गत की आधी प्रदक्षिणा करके पश्चिम समुद्र में गई है। ऐसे रोहित और रोहितास्या नामक दो नदियाँ हैमवत नामक जघन्य भोग भूमि के क्षेत्र में जाननी चाहिएँ । हरित नदी निषध पति के तिछि हद से दक्षिण को आकर नाभिगिरि पर्वत से आधे योजन दूर रहकर उसी पति की आधी प्रदक्षिणा करके पूर्व समुद्र में गई है । इसी तरह हरिकान्ता नदी महा हिम Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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