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________________ गाथा ३५ ] द्वितीयोऽधिकारः [१२१ जम्बूद्वीपे सप्तक्षेत्राणि भण्यन्ते । दक्षिणदिग्विभागादारभ्य भरतहैमवतहरिविदेह-रम्यक हैरण्यवतैरावतसंज्ञानि सप्तक्षेत्राणि भवन्ति । क्षेत्राणि कोऽर्थः १ वर्षा बंशादेशा जतपदा इत्यर्थः । तेषां क्षेत्राणां विभागकारकाः षट् कुलपर्वताः कथ्यन्तेदक्षिणदिग्भागमादीकृत्य हिमवन्महाहिमवन्निषधनीलरुक्मिशिस्त्ररिसंज्ञा भरतादिसप्तक्षेत्राणामन्तरेषु पूर्वापरायताः षट् कुलपर्वताः भवन्ति । पर्नता इति कोऽर्थः। वर्षधरपर्वताः सीमापर्वता इत्यर्थः। तेषां पर्वतानामुपरि क्रमेण दा कथ्यन्ते । पद्ममहापद्मतिगिञ्छकेशरिमहापुण्डरीकपुण्डरीकसंज्ञा अकृत्रिमा षट् ह्रदा भवन्ति । हृदा इति कोऽर्थः ? सरोवराणीत्यर्थः। तेभ्यः पद्मादिषदेभ्यः सकाशादागमकथितक्रमेण निर्गता याश्चतुर्दशमहानद्यस्ताः कथ्यन्ते । तथाहि-हिमवत्पर्वतस्थपद्मनाममहाह्रदादर्धक्रोशावगाहक्रोशाधिकषट्योजन' प्रमाणविस्तारपूर्वतोरणद्वारेण निर्गत्य तत्पर्वतस्यैवोपरि पूर्वदिग्विभागेन योजनशतपञ्चकम् गच्छति ततो गङ्गाकूटसमीपे दक्षिणेन व्याकृत्य भूमिस्थकुण्डे पतति तस्माद् दक्षिणाद्वारेण निर्मात्य भरतक्षेत्रमध्यभागस्थितस्य दीर्घत्वेन पूर्वापरसमुद्रस्पर्शिनो विजयास्य गुरुद्वारेण लोक के बीच में स्थित जम्बू द्वीप में सात क्षेत्र हैं। दक्षिण दिशा से प्रारम्भ होकर भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत नामक सात क्षेत्र हैं। क्षेत्र का क्या अर्थ है ? यहां क्षेत्र शब्द से वर्ष; वंश; देश अथवा जनपद अर्थ का ग्रहण है । उन क्षेत्रों का विभाग करने वाले छह कुलाचल हैं। दक्षिण दिशा की ओर से उनके नाम हिमवत् १; महाहिमवत् २; निषध ३; नील ४; रुक्मी ५ और शिखरी ६ हैं । पूर्व-पश्चिम लम्बे ये पर्वत उन भरत अदि सप्त क्षेत्रों के बीच में हैं । पर्वत का क्या अर्थ है ? पर्वत का अर्थ वर्षधर पर्वत अथवा सीमा पर्वत है । उन पर्वतों के ऊपर हदों का क्रम से कथन करते हैं। पद्म १, महापद्म २, तिगिंछ ३, केसरी ४, महापुडरीक ५ और पुडरीक ६ ये अकृत्रिम छः हृद हैं। हद का क्या अर्थ है ? ह्रद का अर्थ सरोवर है । उन पद्म आदि ६ हृदों से आगम में कहे क्रमानुसार जो चौदह महा नदियाँ निकली हैं उनका वर्णन करते है। वथा-हिमवत् पर्वत पर स्थित पद्म नामक महा ह्रद के पूर्व तोरण द्वार से, अर्ध कोस प्रमाण गहरी और एक कोस अधिक छः योजन प्रमाण चौड़ी गङ्गा नदी निकलकर, उसी हिमवत् पर्वात के ऊपर पूर्व दिशा में पांच सौ योजन तक जाती है। फिर वहाँ से गङ्गाकूट के पास दक्षिण दिशा को मुड़कर, भूमि में स्थित वुण्ड में गिरती है, वहाँ से दक्षिण द्वार से निकलकर, भरत क्षेत्र के मध्य भाग में स्थित तथा अपनी लम्बाई से पूर्व पश्चिम समुद्र को छूने वाले विजयार्द्ध पर्वात की गुफा के द्वार से निकलकर, आर्यखंड के अर्ध भाग में पूर्ण को घूमकर पहली गहराई की अपेक्षा दशगुणी अर्थात् ५ कोस गहरी और इसी प्रकार पहली चौड़ाई १ कोशार्धाधिक षट योजन' इति पाठान्तरं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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