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________________ १२० ] · बृहद्रव्यसंग्रहः [ गाथा ३५ 1 जनलक्षद्वयप्रमाणेन वृताकारेण बहिर्भागे लवणसमुद्ररेण वेष्टितः । सोऽपि लवणसमुद्रस्तद्विगुणविस्तारेगा योजन लक्षचतुष्टयमाणेन वृत्ताकारेण बहिर्भागे धातकी एडीपेन वेष्टितः । सोऽपि घातकीखण्डद्वीपस्तद्विगुणविस्तारेण योजनाष्टलक्षप्रमाणेन वृचाकारेण बहिर्भागे कालोदकसमुद्रेण वेष्टितः । सोऽपि कालोदकसमुद्रस्तद्विगुणविस्तारेण षोडशयोजनलचप्रमाणेन वृत्ताकारेण वहिर्भागे पुष्करद्वीपेन वेष्टितः । इत्यादिद्विगुण द्विगुणविष्कम्भः स्वयम्भू रमचद्वीपस्वयम्भूरमण समुद्रपर्यन्तो ज्ञातव्यः । यथा जम्बुद्वीपलवण समुद्र विष्कम्भद्वय समुदयाद्यो जनलक्षत्रयप्रमितात्सकाशाद्धातकीखण्ड एकलचेणाधिकस्तथैवासंख्येयद्वीपसमुद्र विष्कम्भेभ्यः स्वयम्भूरमण समुद्र विष्कम्भ एकलक्षेणाधिको ज्ञातव्यः । एवमुक्तलक्षणेष्वसंख्येयद्वीपसमुद्र षु व्यन्तरदेवानां पर्वताद्युपरिगता आवासाः, अधोभूभागगतानि भवनानि तथैव द्वीपसमुद्रादिगतानि पुराणि च परमागमोक्तभिन्नलक्षणानि । तथैव खरभागपङ्कभागस्थितप्रतरासंख्येभागप्रमाणासंख्येयव्यन्तरदेवावासाः, तथैव द्वासप्ततिलक्षाधिककोटिसप्तप्रमितभवनवासिदेवसंबन्धिभवनानि अकृत्रिमजिन चैत्यालयस - हितानि भवन्ति । एवमतिसंक्षेपेण तिर्यग्लोको व्याख्यातः । अथ तिर्यग्लोकमध्यस्थितो मनुष्यलोको व्याख्यायते - तन्मध्यस्थित अपने से दूने विस्तार वाले चार लाख योजन प्रमाण गोलाकार धातकी खण्ड द्वीप से बेष्टित है । वह धातकी खण्ड द्वीप भी बाह्य भाग में अपने से दूने विस्तार वाले आठ लाख योजन प्रमाण गोलाकार कालोदक समुद्र से वेष्टित है । वह कालोदक समुद्र भी बाह्य भाग में अपने से दूने विस्तार वाले सोलह लाख योजन प्रमाण गोलाकार पुष्कर द्वीप से वेष्टित है । इस प्रकार यह दूना २ विस्तार स्वयंभूरमण द्वीप तथा स्वयंभूरमण समुद्र तक जानना चाहिये। जैसे जंबू द्वीप एक लाख योजन और लवण समुद्र दो लाख योजन चौड़ा है, इन दोनों का समुदाय तीन लाख योजन है; उससे एक लाख योजन अधिक अर्थात् चार लाख योजन धातकी खण्ड है । इसी प्रकार असंख्यात द्वीप समुद्रों का जो विष्कंभ है उससे एक लाख योजन अधिक स्वयंभूरमण समुद्र का विष्कम्भ जानना चाहिये । ऐसे पूर्वोक्त लक्षण के धारक असंख्यात द्वीप समुद्रों में पर्वत आदि के ऊपर व्यन्तर देवों के आवास; नीचे की पृथिवी के भाग में भवन, और द्वीप तथा समुद्र आदि में पुर हैं। इन आवास, भवन तथा पुरों के परमागमानुसार ये भिन्न-भिन्न लक्षण हैं । इसी प्रकार रत्नप्रभा भूमि के खर भाग और पक भाग में स्थित प्रतर के असंख्यातवें भाग प्रमाण व्यंतर देवों के आवास (भवन) तथा सात करोड़ बहत्तर लाख भवनवासी देवों के भवन अकृत्रिम चैत्यालयों सहित हैं । इस प्रकार अत्यंत संक्षेप से मध्यलोक का व्याख्यान किया । अब तिर्यग लोक के बीच में स्थित मनुष्य लोक का व्याख्यान करते हैं । उस मनुष्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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