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________________ गाथा ३५ ] द्वितीयोऽधिकारः [ ११७ प्रथमपटलव्याख्यानं विज्ञेयम् । तथैव पूर्वोक्तकोनपञ्चाशत्पटलेष्वयमेव व्याख्यानक्रमः किन्त्वष्टकश्रेणिवेकैकपटलं प्रत्येकैकं हीयते यावत् सप्तमपृथिव्यां चतुर्दिग्भागेष्वेकं विलं तिष्ठति । रत्नप्रभादिनारकदेहोत्सेधः कथ्यते। प्रथमपटले हस्तत्रयं ततः क्रमवृद्धिवशात्त्रयोदशपटले सप्तचापानि हस्तत्रयमशलषटकं चेति । ततो द्वितीयपृथिव्यादिषु चरमेन्द्रकेषु द्विगुणद्विगुणे क्रियमाणे सप्तमपथिव्यां चापशतपश्चकं भवति । उपरितने नरके य उत्कृष्टोत्सेधः सोऽधस्तने नरके विशेषाधिको जघन्यो भवति, तथैव पटलेषु च ज्ञातव्यः। आयुःप्रमाणं कथ्यते । प्रथमपृथिव्यां प्रथमे पटले जघन्येन दशवर्षसहस्राणि तत आगमोक्तक्रमवृद्धिवशादन्तपटले सर्वोत्कर्षेणैकसागरोपमम् । ततः परं द्वितीयपृथिव्यादिषु क्रमेण त्रिसप्तदशसप्तदशद्वाविंशतित्रयस्त्रिशत्सागरोपममुत्कृष्टजीवितम् । यच्च प्रथमपृथिव्यामुत्कृष्टं तद्वितीयायां समयाधिकं जघन्यं, तथैव पटलेषु च । एवं सप्तमपृथिवीपर्यन्तं ज्ञातव्यम् । स्वशुद्धात्मसंवित्तिलक्षणनिश्चयरत्नत्रयविलक्षणैस्तीव्रमिथ्यात्वदर्शनज्ञानचारित्रैः परिणतानाम श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक रूप से तीन प्रकार के नरक हैं । इस प्रकार प्रथम पटल का व्याख्यान जानना चाहिये । इसी प्रकार पूर्वोक्त जो सातों पृथिवियों में उनचास पटल है उनमें भी बिलों का ऐसा ही क्रम है; किन्तु प्रत्येक पटल में, आठों दिशाओं के श्रेणीबद्ध बिलों में से एक-एक बिल घटता गया है, अतः सातवीं पृथ्विी में चारों दिशाओं में एक-एक बिल ही रह जाता है। रत्नप्रभादि पृथिवियों के नारकियों के शरीर की ऊँचाई को कहते हैं-प्रथम पटल में तीन हाथ की ऊँचाई है और यहां से क्रम क्रम से बढ़ते हुए तेरहवें पटल में सात धनुष, तीन हाथ, ६ अंगुल की ऊँचाई है। तदनंतर दूसरी आदि पृथिवियों के अन्त के इंद्रक बिलों में दूनी-दूनी वृद्धि करने से सातवीं पृथिवी में पाँचसौ धनुष की ऊँचाई होती है। ऊपर के नरक में जो उत्कृष्ट ऊँचाई है उससे कुछ अधिक नीचे के नरक में जघन्य ऊँचाई है। इसी प्रकार पटलों में भी जानना चाहिये। नारकी जीवों की आयु का प्रमाण कहते हैं । प्रथम पृथिवी के प्रथम पटल में जघन्य दस हजार वर्ष की आयु है; तत्पश्चात् आगम में कही हुई क्रमानुसार वृद्धि से अन्त के तेरहवें पटल में एक सागर प्रमाण उत्कृष्ट आयु है । इसके अनन्तर क्रम से दूसरी पृथिवी में तीन सागर, तीसरी में सात सागर, चौथी में दस सागर, पाँचवीं में सत्रह सागर, छठी में बाईस सागर और सातवीं में तेतीस सागर प्रमाण उत्कृष्ट आयु है । जो पहली पृथिवी में उत्कृष्ट आयु है, वह समय अधिक दूसरी में जघन्य आयु है । इसी तरह जो पहले पटल में उत्कृष्ट आयु है सो दूसरे में समयाधिक जघन्य है । ऐसे ही सातवीं पृथिवी तक जानना चाहिये । निजशुद्ध-आत्मानुभव रूप निश्चय Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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