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११६ ] . . बृहद्र्व्य संग्रहः
[गाथा ३५ तथैव राक्षसकुलं विहाय सप्तप्रकारच्यन्तरदेवानां आवासा ज्ञातव्या इति । पङ्कभागे पुनरसुराणां राक्षसानां चेति । अब्बहुल भागे नारकास्तिष्ठन्ति ।
तत्र बहुभूमिकाप्रासादवदधोऽधः सर्वपृथिवीषु स्वकीयस्वकीयबाहुल्यात् सकाशादध उपरि चैकैकयोजनसहसू विहाय मध्यभागे भूमिक्रमेण पटलानि भवन्ति त्रयोदशैकादशनवसप्तपञ्चव्येकसंख्यानि, तान्येव सर्वसमुदायेन पुनरेकोनपश्चाशत्प्रमितानि पटलानि । पटलानि कोऽर्थः ? प्रस्तारा इन्द्रका अंतर्भूमयः इति । तत्र रत्नप्रभायां सीमंतसंज्ञे प्रथमपटलविस्तारे नृलोकवत् यत्संख्येययोजनविस्तारवत् मध्यविलं तस्येन्द्रकसंज्ञा । तस्यैव चतुर्दिग्विभागे प्रतिदिशं पंक्तिरूपेणासंख्येययोजनविस्ताराण्येकोनपञ्चाशगिलानि । तथैव विदिक्चतुष्टये प्रतिदिशं पंक्तिरूपेण यान्यष्टचत्वारिंशविलानि तान्यप्यसंख्यातयोजनविस्ताराणि । तेषामपि श्रेणीबद्धसंज्ञा । दिग्विदिगष्टकान्तरेषु पंक्तिरहितत्वेन पुष्पप्रकरवत्कानिचित्संख्येययोजनविस्ताराणि कानिचिदसंख्येययोजनविस्तागण यानि तिष्ठन्ति तेषां प्रकीर्णकसंज्ञा । इतीन्द्रकश्रेणीबद्धप्रकीर्णकरूपेण विधा नरका भवन्ति । इत्यनेन क्रमेण
पृथिवी खर भाग, पङ्क भाग और अब्बहुल भाग भेदों से तीन प्रकार की जाननी चाहिए । उनमें ही खर भाग में असुरकुमार देवों के सिवाय नौ प्रकार के भवनवासी देवों के और राक्षसों के सिवाय सात प्रकार के व्यन्तर देवों के निवासस्थान हैं । पङ्क भाग में असुर तथा राक्षसों का निवास है। अब्बहुल भाग में नरक हैं।
बहुत से खनों वाले महल के समान नीचे-नीचे सव पृथिवियों में अपनी-अपनी मोटाई में, नीचे और ऊपर एक-एक हजार योजन छोड़ कर, जो बीच का भाग है, उसमें पटल होते हैं। भूमि के क्रम से वे पटल पहली नरक पृथ्वी में तेरह, दूसरी में ग्यारह, तीसरी में नौ, चौथी में सात, पांचवी में पांच, छठी में तीन और सातवीं में एक, ऐसे सब ४६ पटल है । 'पटल' का क्या अर्थ है ? पटल का अर्थ प्रस्तार, इन्द्रक अथवा अन्तर भूमि है । रत्नप्रभा प्रथम पृथिवी के सीमन्त नामक पहले पटल में ढाई द्वीप के समान संख्यात ( पैंतालीस लाख ) योजन विस्तार वाला जो मध्य-बिल है, उसकी इंद्रक संज्ञा है। उस इंद्रक की चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में असंख्यात योजन विस्तारवाले ४६ बिल हैं । और इसी प्रकार चारों विदिशाओं में से प्रत्येक विदिशा में पंक्ति रूप जो ४८-४८ बिल हैं, वे भी असंख्यात योजन प्रमाण विस्तार वाले हैं । (इंद्रक-बिल की दिशा और विदिशाओं में जो पंक्तिरूप बिल हैं) उनकी 'श्रेणीबद्ध' संज्ञा है । चारों दिशा और विदिशाओं के बीच में, पंक्ति के बिना, बिखरे हुए पुष्पों के समान, संख्यात योजन तथा असंख्यात योजन विस्तार वाले जो बिल हैं, उनकी 'प्रकीर्णक' संज्ञा है । ऐसे इन्द्रक,
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