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________________ ११८] बृहद्र्व्यसंग्रहः [गाथा ३५ संज्ञिपञ्चेन्द्रियसरटपक्षिसर्पसिंहस्त्रीणां क्रमेण रत्नप्रभादिषु षट् पृथिवीषु गमनशक्तिरस्ति सप्तम्यां तु कर्मभूमिजमनुष्याणां मत्स्यानामेव । किञ्च-यदि कोऽपि निरन्तरं नरके गच्छति तदा पृथिवीक्रमेणाष्टमप्तषट्पञ्चचतुस्त्रिद्विसंख्यवारानेव । किन्तु सप्तमनरकादागताः पुनरप्येकवारं तत्रान्यत्र वा नरके गच्छन्तीति नियमः। नरकादागता जीवा बलदेक्वासुदेवप्रतिवासुदेवचक्रवर्तिसंज्ञाः शलाकापुरुषाः न भवन्ति । चतुर्थपञ्चमषष्ठसप्तमनरकेभ्यः समागताः क्रमेण तीर्थकरचरमदेहभावसंयतश्रावका न भवन्ति । तर्हि किं भवन्ति ? "णिरयादो पिस्सरिदो णरतिरिए कम्मसगिणपजते । गब्भभवे उप्पज्जदि सत्तमणिरयादु तिरिएव । १।" इदानीं नारकदुःखानि कथ्यन्ते । तद्यथा-विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावनिजपरमात्मतत्त्वसम्यश्रद्धानज्ञानानुष्ठानभावनोत्पन्ननिर्विकारपरमानन्दैकलक्षणसुखामृतरसास्वादरहितैः पञ्चेन्द्रियविषयसुखास्वादलम्पटैमिथ्यादृष्टिजीचर्यदुपार्जितं नरकायुर्नरकगत्यादिपापकर्म तदुदयेन नरके समुत्पद्य पृथिवीचतुष्टये तीव्रोष्णदुःखं, रत्नत्रय से विलक्षण जो तीव्र मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र हैं, उनसे परिणत असंज्ञी पंचेन्द्रिय, सरट (गोह आदि), पक्षी, सर्प, सिंह और स्त्री की क्रम से रत्नप्रभादि छः पृथिवियों तक जाने की शक्ति है ( असैनी पंचेन्द्रिय प्रथम भूमि तक, सरट (गोह) दूसरी तक, पक्षी तोसरी तक, सर्प चौथी तक, सिंह पाँचवीं तक तथा स्त्री का जीव छठी भूमि तक जा सकता है), और सातवीं पृथिवी में कर्मभूमि के उत्पन्न हुए मनुष्य और मगरमच्छ ही जा सकते हैं। विशेष—यदि कोई जीव निरन्तर नरक में जाता है तो प्रथम पृथिवी में आठ बार, दूसरी में सात बार, तीसरी में छः बार, चौथी में पाँच बार, पाँचवी में चार बार, छठी में तीन बार और सातवीं में दो बार ही जा सकता है। किंतु सातवें नरक से आये हुए जीव फिर भी एक बार उसी या अन्य किसी नरक में जाते हैं, ऐसा नियम है । नरक से आये हुए जीव बलदेव, नारायण, प्रतिनारायण और चक्रवर्ती नामक शलाका पुरुष नहीं होते ॥ चौथे नरक के आये हुये तीर्थङ्कर, पाँचवें से आये हुये चरम शरीरी, छठे से आये हुये भावलिंगी मुनि और सातवें से आये हुए श्रावक नहीं होते । तो क्या होते हैं ? 'नरक से आये हुए जीव, कर्मभूमि में संज्ञो, पर्याप्त तथा गर्भज मनुष्य या तिर्यच होते हैं। सातवें नरक से आये हुये तियच ही होते हैं। " अब नारकियों के दुःखों का कथन करते हैं । यथा-विशुद्धज्ञान, दर्शनस्वभाव निन शुद्ध परमात्म तत्त्व के सम्यकश्रद्धान-ज्ञान-आचरण की भावना से समुत्पन्न निर्विकारपरम-आनन्दमय सुखरूपी अमृत के आस्वाद से रहित और पाँच इन्द्रियों के विषय सुखास्वाद में लम्पट, ऐसे मिथ्यादृष्टि जीवों ने जो नरक आयु तथा नरक गति आदि पापकर्म Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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