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गाथा ३५]
द्वितीयोऽधिकारः स्वशुद्धात्मैकसहोयो भवति । तदपि कथमिति चेत् ? यदि चरमदेहो भवति तर्हि केवलज्ञानादिव्यक्तिरूपं मोक्षं नयति, अचरमदेहस्य तु संसारस्थिति स्तोकां कृत्वा देवेन्द्राद्यभ्युदयसुखं दत्वा च पश्चात् पारम्पर्येण मोक्षं प्रापयतीत्यर्थः । तथा चोक्तम्- "सग्गं तवेण सव्वो, वि पावए तहि वि माणजोयेण । जो पावइ सो पावइ, परलोए सासयं सोक्खं । १।" एवमेकत्वभावनाफलं ज्ञात्वा निरन्तरं निजशुद्धात्मैकत्वभावना कर्तव्या । इत्येकत्वानुप्रेक्षा गता ॥ ४ ॥
___ अथान्यत्वानुप्रेक्षां कथयति । तथा हि-पूर्वोक्तानि यानि देहबन्धुजनसुवर्णाद्यर्थेन्द्रियसुखादीनि कर्माधीनत्वे विनश्वराणि तथैव हेयभूतानि च, तानि सर्वाणि टङ्कोत्कीर्णज्ञायकैकस्वभावत्वेन नित्यात्सर्वप्रकारोपादेयभूतान्निर्विकारपरमचैतन्यचिच्चमत्कारस्वभावान्निजपरमात्मपदार्थान्निश्चयनयेनान्यानि भिन्नानि । तेभ्यः पुनरात्माप्यन्यो भिन्न इति । अयमत्र भावः-एकत्वानुप्रेक्षायामेकोऽहमित्यादिविधिरूपेण व्याख्यानं, अन्यत्वानुप्रेक्षायां तु देहादयो मत्सकाशादन्ये, मदीया न भवन्तीति निषेधरूपेण । इत्येकत्वान्यत्वानुप्रेक्षायां विधिनिषेधरूप एव विशेषस्तोत्पर्य तदेव । इत्यन्यत्वानुप्रेक्षा समाप्ता । । ।
अंतिम शरीर हो, तब तो केवलज्ञान आदि की प्रकटतारूप मोक्ष में ले जाता है, यदि अंतिम शरीर न हो, तो वह संसार की स्थिति को कम करके देवेन्द्रिय आदि सांसारिक सुख को देकर तत्पश्चात् परम्परा से मोक्ष की प्राप्ति कराता है । यह निष्कर्ष है । कहा भी है'तप करने से स्वर्ग सब कोई पाते हैं, परन्तु ध्यान के योग से जो कोई स्वर्ग पाता है वह अग्रिम भव में अक्षय सुख को पाता है ।। १ ॥' इस तरह एकत्व भावना के फल को जान कर, सदा निज-शुद्धआत्मा में एकत्व रूप भावना करनी चाहिये । इस प्रकार 'एकत्व' अनुप्रेक्षा समाप्त हुई ।। ४ ।।
अब लान्यत्व अनुप्रेक्षा कहते हैं-पूर्वोक्त देह, बंधुजन, सुवर्ण आदि अर्थ और इन्द्रिय सुख आदि कर्मों के अधीन हैं, इसी कारण विनाशशोल तथा हेय भी हैं। इस कारण टंकोत्कीर्ण ज्ञायक रूप एक स्वभाव से नित्य, सब प्रकार उपादेयभूत निर्विकार-परम चैतन्य चित्-चमत्कार स्वभाव रूप जो निज-परमात्म पदार्थ है, निश्चयनय की अपेक्षा उससे वे सब देह आदि भिन्न हैं । आत्मा भी उनसे भिन्न है। भावार्थ यह है-एकत्व अनुप्रेक्षा में तो 'मैं एक हूँ' इत्यादि प्रकार से विधि रूप व्याख्यान है और अन्यत्व अनुप्रेक्षा में 'देह आदिक पदार्थ मुझसे भिन्न हैं, ये मेरे नहीं हैं' इत्यादि निषेध रूप से वर्णन है। इस प्रकार एकत्व और अन्यत्व इन दोनों अनुप्रेक्षाओं में विधि निषेध रूप का ही अन्तर है, तात्पर्य दोनों का एक ही है । ऐसे 'अन्यत्व' अनुप्रेक्षा समाप्त हुई ॥ ५ ॥
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