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________________ १०८] बृहद् द्रव्य संग्रहः [ गाथा ३५ गताः । श्राचाराराधनाटिप्पणे कथितमास्ते । इति संसारानुप्रेक्षा गता । ३ । थैकत्वानुप्रेक्षा कथ्यते । तद्यथा - निश्चयरत्नत्रयै कलच से कत्व भावनापरिणतस्यास्य जीवस्य निश्श्यनयेन सहजानन्दसुखाद्यनन्तगुणाधारभूतं केवलज्ञानमेवैकं सहजं शरीरम् । शरीरं कोऽर्थः ? स्वरूपं, न च सप्तधातुमयौदारिकशरीरम् । तथैवार्त्तरौद्रदुर्ध्यान विलक्षणपरमसामायिकलक्षणैकत्वभावनापरिणतं निजात्मतत्त्वमेवैकं सदा शाश्वतं परमहितकारी परमोबन्धु, न च विनश्वराहितकारी पुत्रकलत्रादिः । तेनैव प्रकारेण परमोपेक्षासंयमलक्षणैकत्वभावनासहितः स्वशुद्धात्मपदार्थ एक एवाविनश्वरहितकारी परमोऽर्थः, न च सुवर्णाद्यर्थः । तथैव निर्विकल्पसमाधिसमुत्पन्ननिर्विकारपरमानन्दै कलक्षणानाकुलत्वस्वभावात्मसुखमेवैकं सुखं न चाकुलत्वोत्पादकेन्द्रियसुखमिति । कस्मादिदं देहबन्धुजन सुवर्णाद्यर्थेन्द्रियसुखादिकं जीवस्य निश्चयेन निराकृतमिति चेत् ? यतो मरणकाले जीव एक एव गत्यन्तरं गच्छति न च देहादीनि । तथैव रोगव्याप्तिकाले विषयकषायादिदुर्थ्यांनरहितः उसको सुनकर उन सब वर्द्धनकुमारादि ने तप ग्रहण किया और बहुत थोड़े काल में मोक्ष चले गये ।' यह कथा आचाराराधना की टिप्पणी में कही गई है। इस प्रकार 'संसार अनुप्रेक्षा' का व्याख्यान हुआ । ३ । अब एक अनुप्रेक्षा को कहते हैं - निश्चयरत्नत्रय लक्षण वाली एकत्व भावना में परिणत इस जीव के निश्चयनय से स्वाभाविक आनन्द आदि अनन्त गुणों का आधाररूप केवल ज्ञान ही एक स्वाभाविक शरीर है। यहां 'शरीर' शब्द का अर्थ 'स्वरूप' है, न कि सात तु से निर्मित औदारिक शरीर । इसी प्रकार आ ओर रौद्र दुर्ध्याना से विलक्षण परमसामायिक रूप एकत्व भावना में परिणत जो एक अपना आत्मा है वही सदा अविनाशी और परमहितकारी व परम वन्धु है; विनश्वर व अहितकारी पुत्र, मित्र, कलत्र आदि वन्धु नहीं हैं । उसी प्रकार परम उपेक्षा संयमरूप एकत्व भावना से सहित जो नित शुद्धात्म पदार्थ है, वह ही एक अविनाशी तथा हितकारी परम अर्थ है, सुवर्ण आदि परम-अर्थ नहीं हैं । एवं निर्विकल्प - ध्यान से उत्पन्न निर्विकार परम आनन्द - लक्षण, आकुलता रहित आत्म-सुख ही एक सुख है और आकुलता को उत्पन्न करने वाला इन्द्रियजन्य जो सुख है वह सुख नहीं है । शंका - शरीर, बन्धुजन तथा सुवर्ण आदि अर्थ और इन्द्रिय सुख आदि को निश्चयनय से जीव के लिये हेय क्यों कहे हैं ? समाधान - मरण समय यह जीव अकेला ही दूसरी गति में गमन करता है, देह आदि इस जीव के साथ नहीं जाते । तथा जब जीव रोगों से घिर जाता है तब विषय कषाय आदि रूप दुर्ध्यान से रहित एक - निजशुद्ध-आत्मा ही इसका सहायक होता है । शंका- वह कैसे सहायक होता है ? उत्तर - यदि जीव का वह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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