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________________ ११०] वृहद्र्व्यसंग्रहः [ गाथा ३५ अतः परं अशुचित्वानुप्रेक्षा कथ्यते । तद्यथा-सर्वाशुचिशुक्रशोणितकारणोत्पन्नत्वात्तथैव "वसासृग्मांसमेदोऽस्थिमज्जाशुक्राणि धातवः” इत्युक्ताशुचिसप्तधातुमयत्वेन तथा नासिकादिनवरन्ध्रद्वारैरपि स्वरूपेणाशुचित्वात्तथैव मूत्रपुरीषाघशुचिमलानामुत्पत्तिस्थानत्वाच्चाशुचिरयं देहः। न केवलमशुचिकारणत्वेनाशुचिः स्वरूपेणाशुच्युत्पादकत्वेन चाशुचिः, शुचि सुगन्धमाल्यवस्त्रादीनामशुचित्वोत्पादकत्वाच्चाशुचिः । इदानीं शुचित्वं कथ्यते-सहजशुद्धकेवलज्ञानादिगुणानामाधारभूतत्वात्स्वयं निश्चयेन शुचिरूपत्वाच्च परमात्मैव शुचिः । 'जीवो वह्मा जीवमि चेव चरिया हविज जो जदिणो । तं जाण वह्मचेरं विमुक्कपरदेहभचीए । १।' इति गाथाकथितनिर्मलब्रह्मचर्य तत्रैव निजपरमात्मनि स्थितानामेव लभ्यते । तथैव "ब्रह्मचारी सदा शुचिः" इतिवचनात्तथाविधब्रह्मचारिणामेव शुचित्वं न च कामक्रोधादिरतानां जलस्नानादिशौचेऽपि । तथैव च-"जन्मना जायते शूद्रः क्रियया द्विज उच्यते । श्रुतेन श्रोत्रियो ज्ञेयो ब्रह्मचर्येण ब्राह्मणः ।१।" इतिवचनाच एव निश्चयशुद्धाः ब्राह्मणाः । तथा चोक्तं नारायणेन युधिष्ठिरं प्रति विशुद्धात्मनदीस्नानमेव परमशुचित्वकारणं, न च लौकिकगङ्गादितीर्थे स्नानादिकम् । ___ इसके आगे अशुचित्व अनुप्रेक्षा को कहते हैं-सब प्रकार से अपवित्र वीर्य और रज से उत्पन्न होने के कारण, 'वसा, रुधिर, मांस. मेद, अस्थि (हाड़), मज्जा और शुक्र धातु हैं। इन अपवित्र सात धातुमय होने से, नाक आदि नौ छिद्र द्वार होने से, स्वरूप मे भी अशुचि होने के कारण तथा मूत्र, विष्ठा आदि अशुचि मलों की उत्पत्ति का स्थान होने से ही यह देह अशुचि नहीं है; किंतु यह शरीर अपने संसर्ग से पवित्र-सुगन्ध-माला व वस्त्र आदि में भी अपवित्रता कर देता है, इसलिये भी यह देह अशुचि है। अब पवित्रता को बतलाते हैं. सहज-शुद्ध केवलज्ञान आदि गुण का आधार होने से और निश्चय से पवित्र होने से यह परमात्मा ही शुचि है । 'जीव ब्रह्म है. जीव ही में जो मुनि की चर्या होती है उसको परदेह की सेवा रहित ब्रह्मचर्य जानो । इस गाथा में कहा हुआ जो निर्मल ब्रह्मचर्य है, वह निज परमात्मा में स्थित जीवों को ही मिलता है । तथा 'ब्रह्मचारी सदा पवित्र है' इस वचन से पूर्वोक्त प्रकार के ब्रह्मचारियों के ही पवित्रता है । जो काम, क्रोध आदि में लीन जीव हैं, उनके जल-स्नान आदि करने पर भी पवित्रता नहीं है। क्योंकि 'जन्म से शूद्र होता है, क्रिया से द्विज कहलाता है, श्रुत शास्त्र से श्रोत्रिय और ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण जानना चाहिये । १।' इस आगमवचनानुसार वे ( परमात्मा में लीन) ही वास्तविक शुद्ध ब्राह्मण हैं । नारायण ने युधिष्ठिर से कहा भी है-'विशुद्ध आत्मा रूपी शुद्ध नदी में स्नान का करना ही परम पवित्रता का कारण है, लौकिक गंगा आदि तीर्थों में स्नान का करना शुचि का कारण नहीं है। 'संयम रूपी जल से भरी, सत्य रूपी प्रवाह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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