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________________ १०४] बृहद्र्व्यसंग्रहः [गाथा ३५ अथाशरणानुप्रेक्षा कथ्यते-निश्चयरत्नत्रयपरिणतं स्वशुद्धात्मद्रव्यं तद् बहिरङ्गसहकारिकारणभूतं पञ्चपरमेष्ठयाराधनश्च शरणम् , तस्माद्बहिभूता ये देवेन्द्रचक्रवर्तिसुभटकोटिभटपुत्रादिचेतना गिरिदुर्गभूविवरमणिमन्त्राज्ञाप्रासादौषधादयः पुनरचेतनास्तदुभयात्मको मिश्राश्च मरणकालादौमहाटव्यां, व्याघ्रगृहीतमृगबालस्येव, महासमुद्र पोतच्युतपक्षिण इव शरणं न भवन्तीति विज्ञेयम् । तद्विज्ञाय भोगकांक्षारूपनिदानबन्धादिनिरालम्बने स्वसंवित्तिसमुत्पन्नसुखामृतसालम्बने स्वशुद्धात्मन्येवावलम्बनं कृत्वा भावनां करोति । यादृशं शरणभूतमात्मानं भावयति तादृशमेव सर्वकालशरणभूतं शरणागतवज्रपञ्जरसदृशं निजशुद्धात्मानं प्रामोति । इत्यशरणानुप्रेक्षा व्याख्याता ॥ २ ॥ अथ संसारानुप्रेक्षा कथ्यते शुद्धात्मद्रव्यादितराणि सपूर्वापूर्व मिश्रपुद्गलद्रव्याणि ज्ञानावरणादिद्रव्यकर्मरूपेण, शरीरपोषणार्थाशनपानादिपञ्चेन्द्रियविषयरूपेण चानन्तवारान् गृहीत्वा विमुक्तानीति द्रव्यसंसारः । स्वशुद्धात्मद्रव्यसंबन्धिसहजशुद्धलोकाकाशप्रमितासंख्येयप्रदेशेभ्यो भिन्ना ये लोकक्षेत्रप्रदेशास्तत्रै अशरण अनुप्रेक्षा-निश्चय रत्नत्रय से परिणत जो स्वशुद्धात्म द्रव्य और उसकी बहिरंग सहकारीकारण भूत पंचपरमेष्ठियों की आराधना, यह दोनों शरण (रक्षक) है । उनसे भिन्न जो देव, इन्द्र, चक्रवर्ती, सुभट, कोटिभट और पुत्र आदि चेतन पदार्थ तथा पर्वत, किला, भोहरा, मणि, मन्त्र, तंत्र, आज्ञा, प्रासाद (महल) और औषधि आदि अचेतन पदार्थ तथा चेतन-अचेतन मिश्रित पदार्थ ये कोई भी मरण आदि के समय शरण नहीं होते; जैसे महावन में व्याघ्र से पकड़े हुए हिरण के बच्चे को अथवा महासमुद्र में जहाज से छूटे हुए पक्षी को कोई शरण नहीं होता, ऐसा जानना चाहिए । अन्य पदार्थों को अपना शरण न जानकर, आगामी भोगों की वांछारूप निदानबंध आदि का अवलम्बन न लेकर तथा स्वा- . नुभव से उत्पन्न सुख रूप अमृत का धारक निज-शुद्ध-आत्मा का ही अवलम्बन करके, उस शुद्ध-आत्मा की भावना करता है । जैसी आत्मा को यह शरणभूत भाता है, वैसे ही सदा शरणभूत, शरण में आये हुए के लिए बत्र के पिंजरे के समान, निज-शुद्धआत्मा को प्राप्त होता है । इस प्रकार अशरण अनुप्रेक्षा का व्याख्यान हुआ। २। संसारानुप्रेक्षा-शुद्ध-आत्मद्रध्य से भिन्न सपूर्व (पुराने) अपूर्व (नये) तथा मिश्र ऐसे पुद्गल द्रव्यों को ज्ञानावरण आदि द्रव्यकर्म रूप से तथा शरीर पोषण के लिए भोजनपान आदि पांचों इन्द्रियों के विषय रूप से इस जीव ने अनन्त बार ग्रहण करके छोड़ा है, इस प्रकार 'द्रव्यासंसार है' । निज-शुद्धआत्म द्रव्य सम्बन्धी जो सहज शुद्ध लोकाकाश प्रमाण असंख्यात प्रदेश हैं, उनसे भिन्न लोक-क्षेत्र के सर्व प्रदेशों में एक-एक प्रदेश को व्याप्त करके, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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