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________________ गाथा ३५] द्वितीयोऽधिकारः [ १०३ वमादिवर्जनात् परिपूर्ण ब्रह्मचर्यमवतिष्ठते । स्वातंत्र्यार्थ गुरौ ब्रह्मणि चर्यमिति वा ॥१०॥ एवं दशधा धर्मः ।। ___द्वादशानुप्रेक्षाः कथ्यन्ते-अध्र वाशरणासंसारकत्वान्यत्वाशुचित्वास्रवसंवरनिर्जरालोकबोघिदुर्लभधर्मानुचिन्तनमनुप्रेक्षाः । अथाध्र वानुप्रेक्षा कथ्यते । तद्यथाद्रव्यार्थिकनयेन टङ्कोत्कीर्णज्ञायकैकस्वभावत्वेनाविनश्वरस्वभावनिजपरमात्मद्रव्यादन्यद् भिन्नं यजीवसंबन्धे अशुद्धनिश्चयनयेन रागादिविभावरूपं भावकर्म, अनुपचरितासद्भूतव्यवहारेण द्रव्यकर्मनोकर्मरूपं च तथैव (उपचरितासद्भूतव्यवहारेण) तत्स्वस्वामिभावसम्बन्धेन गृहीतं यच्चेतनं वनितादिकम् , अचेतनं सुवर्णादिकं, तदुभयमिश्रं चेत्युक्तलक्षणं तत्सर्वमध्र वमिति भावयितव्यम् । तद्भावनासहितपुरुषस्य तेषां वियोगेऽपि सत्युच्छिष्टेष्विव ममत्वं न भवति तत्र ममत्वाभावादविनश्वरनिजपरमात्मानमेव भेदाभेदरत्नत्रयभावनया भावयति, यादृशमविनश्वरमात्मानं भावयति तादृशमेवाक्षयानन्तसुखस्वभावं मुक्तात्मानं प्रामोति । इत्यध्र वानुप्रेक्षा गता ॥ १ ॥ स्वरूप ब्रह्म जो शुद्ध आत्मा उसमें चर्या होना ब्रह्मचर्य है ।। १० । इस प्रकार दश धर्म हैं । बारह अनुप्रक्षाओं को कहते हैं---अध्रुव, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधि दुर्लभ और धर्म इनका चिन्तवन करना, अनुप्रेक्षा है । उनको विस्तार से कहते हैं अध्र व अनुप्रेक्षा-द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक स्वभाव से अविनाशी स्वभाव वाले निज परमात्म-द्रव्य से भिन्न, अशुद्ध निश्चयनय से जो जीव के रागादि विभावरूप भावकर्म एवं अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से द्रव्यकर्म व शरीरादि नोकर्मरूप, तथा (उपचरित असद्भूत व्यवहारनय से) उनके स्वस्वामि-भाव सम्वन्ध से ग्रहण किये हुए स्त्री आदि चेतन द्रव्य, सुवर्ण आदि अचेतन द्रव्य और चेतन-अचेतन मिश्र पदाथे, उक्त लक्षण वाले ये सब पदार्थ अध्र व (नाशवान) है; इस प्रकार चिन्तन करना चाहिए। उस भावना सहित पुरुष के, उन स्त्री आदि के वियोग होने पर भी, झूठे भोजनों के समान, ममत्व नहीं होता । उनमें ममत्व का अभाव होने से अविनाशी निज परमात्मा को ही भेद, अभेद रूप रत्नत्रय की भावना द्वारा भाता है। जैसो अविनिश्वर आत्मा को भाता है, वैसी ही अक्षय अनन्त सुख स्वभाव वाली मुक्त आत्मा को प्राप्त कर लेता है । इस .. प्रकार अध्र व भावना है । १ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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