________________
१०२] वृहद्रव्यसंग्रह
[ गाथा ३५ अकृत्रिमगिरिगुहातरुकोटरादयः कृत्रिमाश्च शून्यागारादयो मुक्तमोचितावासा अनात्मोद्देशनिर्वर्तिताः सेव्याः । वाक्यशुद्धिः, पृथिवीकायिकारम्भादिप्रेरणरहिता, परुषनिष्ठुरादिपरपीडाकरप्रयोगनिरुत्सुका, व्रतशीलदेशनादिप्रधानफला, हितमितमधुरमनोहरा, संयतस्ययोग्या, इति संयमान्तर्गताष्टशुद्धयः ॥ ६ ॥
कर्मक्षयार्थ तप्यत इति तपः । तद्विविधं, वोह्यमभ्यन्तरं च, तत्प्रत्येक षड्विधम् ॥ ७ ॥ परिगृहनिवृत्तिस्त्यागः । परिगृहस्य चेतनाचेतनलक्षणस्य निवृत्तिस्त्यागः इति निश्चीयते अथवा संयतस्य योग्यं ज्ञानादिदानं त्याग इत्युच्यते ॥ ८॥ ममेदमित्यभिसंधिनिवृत्तिराकिंचन्यं । उपाशेष्वपि शरीरादिषु संस्कारापोहाय ममेदमित्यभिसंधिनिवृत्तिराकिंचन्यमित्याख्यायते । नास्य किंचनास्ति इत्यकिंचनः, तस्य भावः कर्म वा आकिंचन्यम् ॥६॥ अनुभूतांगनास्मरणतत्कथाश्रवण स्त्रीसंसक्तशयनासनादिवर्जनाद् ब्रह्मचर्य । मया अनुभूतांगना कलागुणविशारदा इति स्मरणं तत्कथाश्रवणं रतिपरिमलादिवासितं स्त्रीसंसक्तशयनासनमित्ये
शुद्धि-स्त्री; खुद्र पुरुष; चौर; मद्यपायी; जुआरी; मद्य-विक्रेता तथा पक्षियों को पकड़ने वाले
आदि के स्थानों में नहीं बसना चाहिये । प्राकृतिक गिरि-गुफा, वृक्ष का कोटर तथा बनाये हुए सूने घर, छूटे हुए. छोड़े हुए स्थानों में, जो अपने उद्देश से नहीं बनाये गये हों, बसना चाहिए । ७ । वाक्यशुद्धि-पृथिवीकायिक आदि सम्बन्धी प्रारम्भ आदि की प्रेरणा जिस में न हो । जो कठोर निष्ठुर और पर पीड़ा कारी प्रयोगों से रहित हो । व्रतशील आदि का उपदेश देने वाली हो । हित मित मधुर मनोहर ऐसी संयमी के योग्य वाक्य शुद्धि है । ८ । इस प्रकार संयम के अंतर्गत श्रठ शुद्धियों का वर्णन हुआ।
कर्मक्षय के लिये जो तपा जाये.वह तप है । वह तप दो प्रकार है, बाह्य तप, अंतरंग तप । इनमें से प्रत्येक छः छः प्रकार का है ॥ ७ ॥ चेतन अचेतन परिग्रह की निवृत्ति को त्याग कहते हैं अथवा संयमी के योग्य ज्ञानादि के दान को भी त्याग कहा गया है ॥८॥ 'यह मेरा है" इस प्रकार के अभिप्राय का त्याग आकिंचन्य है अर्थात् जो शरीरादि प्राप्त परिग्रह हैं उनमें संस्कार न रहे इसके लिये "यह मेरा है" इस अभिप्राय की निवृत्ति को आकिंचन्य के नाम से कहा गया है। जिसके कुछ भी ( परिग्रह ) नहीं है वह अकिंचन है उसका जो भाव अथवा कर्म उसे आकिंचन्य कहते हैं ।। ६ ।। अनुभूत स्त्री का स्मरण, उसकी कथा का श्रवण तथा स्त्री संसक्त शय्या आसन आदि स्थान के त्याग से ब्रह्मचर्य है अर्थात् “मैंने उस कला गुण विशारदा स्त्री को भोगा था” ऐसा स्मरण उसकी पूर्व कथा का श्रवण एवं रतिकालीन सुगन्धित द्रव्यों की सुवास तथा स्त्रीसंसक्तशय्या आसन आदि के त्याग से परिपूर्ण ब्रह्मचर्य होता है । अथवा स्वतन्त्रता की प्राप्ति के लिये गुरु
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org