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________________ गाथा ३५ ] . द्वितीयोऽधिकारः [१०१ हितप्रसादा, रागाद्युपप्लवरहिती। कायशुद्धिः निरावरणाभरणा, निरस्तसंस्कारा, यथाजातमलधारिणी, निराकृताङ्गविकारा । विनयशुद्भिः अहंदादिषु परमगुरुषु यथार्ह पूजाप्रवणा, ज्ञानादिषु च यथाविधिभक्तियुक्ता, गुरोः सर्वत्रानुकूलवृत्तिः । ईर्यापथशुद्धिः नानाविधजीवस्थानयोन्याश्रयावबोधजनितप्रयत्नपरिहृतजन्तुपीड़ा, ज्ञानादित्यस्वेन्द्रियप्रकाशनिरीक्षितदेशगामिनी, द्रुतविलम्बितसम्भ्रांतविस्मितलीलाविकारदिगान्तरावलोकनादिदोषविरहितगमना । भिक्षाशुद्धिः आचारसूत्रोक्तकालदेशप्रकृति प्रतिपत्तिकुशला, लाभालाभमानापमानसमाममनोवृत्तिः, लोकगर्हित कुलपरिवर्जनपरा, चन्द्रगतिरिवहीनाधिकगृहा, विशिष्टोपस्थाना दीनानाथदानशालाविवाहय जनगेहादि परिवर्जनोपलक्षिता, दीनवृत्तिविगमा, प्रासुकाहारगवेषणप्रणिधाना, अागमविहित निवद्याशनपरिप्राप्तप्राणयात्राफला । प्रतिष्ठापनशुद्धिः, नखरोमसिङ्घाणकनिष्ठीवनशुक्रोच्चारप्रस्रवणशोधने देहपरित्यागे च जंतूपरोधविरहिता । शयनासनशुद्धिः, स्त्रीक्षुद्रचौरपानाक्षशौण्डशाकुनिकादिपापजनवासा वाः, क्षयोपशम से उत्पन्न होती है, मोक्षमार्ग में रचि होने से परिणामों को निर्मल करने वाली है, तथा रागादि विकार से रहित है। १ । कायशुद्धि, आवरण एवं आभूषणों से रहित, समस्त संस्कारों से अतीत, बालक (यथाजात) के समान धूलि धूसरित देह को धारण करने वाली शरीर विकारों से रहित है । २ । विनयशुद्धि-परम गुरु अरहतादि की यथा योग्य पूजा में तत्परता जहां रहती है, ज्ञानादि में यथाविधि भक्ति जहां की जाती है, गुरु के प्रति जहां सर्वत्र अनुकूल वृत्ति होती है । ३ । ईर्यापथशुद्धि-नाना प्रकार के जीवों की उत्पत्ति के स्थान तथा योनिरूप आश्रयों का बोध होने से ऐसा प्रयत्न करना जिससे जीवों को पीड़ा न हो, ज्ञानरूपी सूर्य से एवं इन्द्रियों से तथा प्रकाश से भले प्रकार देखे हुए प्रदेश में गमन करना, जल्दी चलना, देर से चलना, चंचल उपयोग सहित चलना, साश्चर्य चलना, क्रीड़ा करते हुए चलना, विकार युक्त चलना, इधर उधर दिशाओं में देखते हुए चलना, इत्यादि चलने सम्बन्धी दोषों से रहित गमन करना । ४ । भिक्षाशुद्धि-आचार सूत्र में कहे अनुसार काल, देश, प्रकृति का बोध करना, लाभ-अलाभ, मान-अपमान में समान मनोवृत्ति का रहना; लोकनिंद्य परिवारों में आहार के लिये नहीं जाना, चन्द्रमा के समान कम और अधिक गृहों की जिसमें मर्यादा हो, विशेष रूप से जो स्थान दीनअनाथों के लिये दानशीला हो अथवा विवाह तथा यज्ञ जिस गृह में हो रहे हों, ऐसे स्थानों में आहार के लिये चर्या नहीं करनी । (अन्तराय एवं अनेक उपवासों के पश्चात् भी) दीनवृत्ति का न होना । प्रासुक आहार खोजना ही जहां मुख्य लक्ष्य है। आगम विधि के अनुसार निर्दोष भोजन की प्राप्ति से प्राणों की स्थिति मात्र है लक्ष्य जिसमें, ऐसी भिक्षाशुद्धि है । ५। प्रतिष्ठापनशुद्धि-नख-रोम-नासिका-मल-कफ-वीर्य-मल-मूत्र की क्षेपणक्रिया में तथा शरीर के उठाने-बैठाने इत्यादि में जन्तुओं को बाधा न होने देना । ६। शयनासन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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