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________________ गाथा ३५] द्वितीयोऽधिकारः [१०५ कैकं प्रदेशं व्याप्यानन्तवारान् यत्र न जातो न मृतोऽयं जीवः स कोऽपि प्रदेशो नास्तीति क्षेत्रसंसारः । स्वशुद्धात्मानुभूतिरूपनिर्विकल्पसमाधिकालं विहाय प्रत्येकंदशकोटाकोटिसोगरोपमप्रमितोत्सर्पिण्यवसर्पिण्येकैकसमये नानापरावर्जनकालेनानन्तवारानयं जीवो यत्र न जातो न मृतः स समयो नास्तीति कालसंसारः।अभेदरत्नत्रयात्मकसमाधिबलेन सिद्धगतौ वात्मोपलब्धिलक्षणसिद्धपर्यायरूपेण योऽसावुत्पादो भवस्तं बिहाय नारकतिर्यग्मनुष्यभवेषु तथैव देवभवेषु च निश्चयरत्नत्रयभावनारहितभोगाकांक्षानिदानपूर्वकद्रव्यतपश्चरणरूपजिनदीक्षाबलेन नवनवेयकपर्यन्तं, “सक्को सहग्गमहिस्सी दक्षिणइंदा य लोयवाला य । लोयंतिया य देवा तच्छ चुदा णिव्वुदि जंति । १" इति गाथाकथितपदानि तथागमनिषिद्धान्यन्यपदानि च त्यक्त्वा भवविध्वंसकनिजशुद्धात्मभावनारहितो भवोत्पादकमिथ्यात्वरागादिभावनासहितश्च सन्नयं जीवोऽनन्तवारान् जीवितो मृतश्चेति भवसंसारो ज्ञातव्यः । . अथ भावसंसारः कथ्यते । तद्यथा - सर्वजघन्यप्रकृतिबन्धप्रदेशबन्धनिमित्तानि सर्वजघन्यमनोवचनकायपरिस्पन्दरूपाणि श्रेण्यसंख्येयभागप्रमितानि अनन्त बार यह जीव उत्पन्न न हुआ हो और मर। न हो, ऐसा कोई भी प्रदेश नहीं है। यह 'क्षेत्रसंसार' है। निज-शुद्धआत्म अनुभव रूप निर्विकल्प समाधि के काल को छोड़कर (प्राप्त न करके) दशकोटाकोटी सागर प्रमाण उत्सर्पिणी काल और दशकोटाकोटी सागर प्रमाण अवसर्पिणी काल के एक-एक समय में अनेक परावर्तन काल से यह जीव अनन्त बार जन्मा न हो और मरा न हो ऐसा कोई भी समय नहीं है । इस प्रकार 'कालसंसार' है। अभेद रत्नत्रयात्मक ध्यान के बल से सिद्धगति में निज-आत्मा की उपलब्धि रूप सिद्ध पर्याय रूप उत्पाद के सिवाय नारक, त्रिर्यञ्च, मनुष्य और देवों के भवों में निश्चय रत्नत्रय की भावना से रहित और भोग-वांछादि निदान सहित द्रव्यतपश्चरण रूप मुनि दीक्षा के बल से नव वेयक तक, 'प्रथम स्वर्ग का इन्द्र, प्रथम स्वर्ग की इन्द्राणी शची, दक्षिण दिशा के इन्द्र, लोकपाल और लोकान्तिक देव ये सब स्वर्ग से च्युत होकर निवृत्ति ( मोक्ष ) को प्राप्त होते हैं । १।' गाथा में कहे हुए पदों को तथा आगम में निषिद्ध अन्य उत्तम पदों को छोड़ कर भव नाशक निज-यात्मा की भावना से रहित व संसार को उत्पन्न करने वाले मिथ्यात्व व राग आदि भावों से महित हुआ, यह जीव अनन्त बार जन्मा है और मरा है। इस प्रकार 'भवसंसार' जानना चाहिए। अब भाव संसार को कहते हैं सबसे जघन्य प्रकृतिबन्ध व प्रदेशबन्ध के कारणभूत सर्व जघन्य मन, वचन, काय के अवलम्बन से परिस्पन्द रूप, श्रेणी के असंख्यातवेभाग प्रमाण तथा चार स्थानों में पतित (बृद्धि हानि), ऐसे सर्व जघन्य योगस्थान होते हैं। इसी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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