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________________ भूमिका ] द्वितीयोऽधिकारः [७६ द्वितीया अधिकार अतः परं जीवपुद्गलपर्यायरूपाणामास्रवादिसप्तपदार्थानामेकादशगाथापर्यन्तं व्याख्यानं करोति । तत्रादौ “प्रासवबंधण" इत्याद्यधिकारसूत्रगाथैका, तदनन्तरमास्रवपदार्थव्याख्यानरूपेण "पासवदि जेण" इत्यादि गाथात्रयम् , ततः परं बन्धव्याख्यानकथनेन "वज्झदि कम्म" इति प्रभृतिगाथाद्वयं, ततोऽपि संवरकथनरूपेण "चेदणपरिणामो" इत्यादिसूत्रद्वयं, ततश्च निर्जराप्रतिपादनरूपेण "जहकालेण तवेण य" इति प्रभृतिसूत्रमेकं, तदनन्तरं मोक्षस्वरूपकथनेन "सव्वस्स कम्मणो" इत्यादि सूत्रमेकं, ततश्च पुण्यपापद्वयकथनेन "सुहअसुह" इत्यादि सूत्रमेकं चेत्येकादशगाथाभिः स्थलसप्तकसमुदायेन द्वितीयाधिकारे समुदायपातनिका। __अत्राह शिष्यः - यद्येकान्तेन जीवाजीवौ परिणामिनौ भवतस्तदा संयोगपर्यायरूप एक एव पदार्थः, यदि पुनरेकान्तेनापरिणामिनौ भवतस्तदा जीवाजीवद्रव्यरूपौ द्वावेव पदार्थों, तत प्रास्त्रवादिसप्तपदार्थाः कथं घटन्त इति । तत्रोत्तरंकथंचित्परिणामित्वाद् घटन्ते । कथंचित्परिणामित्वमिति कोऽर्थः १ यथो स्फटिक दसरा अधिकार [भूमिका] इसके पश्चात् जीव और पुद्गल द्रव्य के पर्याय रूप आस्रव आदि ७ पदार्थों का ११ गाथाओं द्वारा व्याख्यान करते हैं। उसमें प्रथम "आसवबंधण'' इत्यादि अधिकार सूचन रूप २८ वीं एक गाथा है। उसके पश्चात् आस्रव के व्याख्यान रूप 'आसवदि जेण' इत्यादि तीन गाथायें हैं। तदनन्तर "वज्झदि कम्मं जेण" इत्यादि दो गाथाओं में बंध पदार्थ का निरूपण है । तत्पश्चात् "चेदणपरिणामो” इत्यादि ३४, ३५ वीं गाथाओं में संवर पदार्थ का कथन है । फिर निर्जरा के प्रतिपादन रूप "जह कालेण तवेण य” इत्यादि ३६ वीं एक गाथा है। उसके बाद मोक्ष के निरूपण रूप “सव्वस्स कम्मणो” इत्यादि ३७ वीं एक गाथा है । तदनन्तर पुण्य, पाप पदार्थों के कथन करने वाली "सुहअसुह" इत्यादि एक गाथा है। इस तरह ११ गाथाओं द्वारा सप्त स्थलों के समुदाय सहित द्वितीय अधिकार की भूमिका समझनी चाहिये। यहाँ शिष्य प्रश्न करता है कि यदि जीव, अजीव यह दोनों द्रव्य सर्वथा एकान्त से परिणामी ही हैं तो संयोग पर्याय रूप एक ही पदार्थ सिद्ध होता है और यदि सर्वथा अपरिणामी है तो जीव, अजीव द्रव्य रूप दो ही पदार्थ सिद्ध होते हैं; इसलिये आस्रव आदि सात पदार्थ कैसे सिद्ध होते हैं ? इसका उत्तर-कथंचित् परिणामी होने से सात पदार्थों का कथन संगत होता है । "कथंचित् परिणामित्व" का क्या अर्थ है ? वह इस प्रकार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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