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________________ ८० ] वृहद्रव्यसंग्रह [ भूमिका मणिविशेषो यद्यपि स्वभावेन निर्मलस्तथापि जपापुष्पाद्युपाधिजनितं पर्यायान्तरं परिणतिं गृह्णाति । यद्यप्युपाधिं गृह्णाति तथापि निश्चयेन शुद्धस्वभावं न त्यजति तथा जीवोsपि यद्यपि शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन सहजशुद्धचिदानन्दै कस्वभावस्तथाप्यनादिकर्मबन्धपर्यायवशेन रागादिपरद्रव्योपाधिपर्यायं गृह्णाति । यद्यपि परपर्यायेण परिणामति तथापि निश्चपेन शुद्धस्वरूपं न त्यजति । पुद्गलोऽपि तथेति । परस्परसापेक्षत्वं कथंचित्परिणामित्वशब्दस्यार्थः । एवं कथंचित्परिणामित्वे सति जीवपुद्गलसंयोगपरिणतिनिवृतत्वादासुवादिसप्तपदार्था घटन्ते । ते च पूर्वोक्तजीवाजीवपदार्थाभ्यां सह नव भवन्ति ततः एव नव पदार्थाः । पुण्यपापपदार्थ - द्वयस्याभेदनयेन कृत्वा पुण्यपापयोरात्रवपदार्थस्य, बन्धपदार्थस्य वा मध्ये अन्त विवक्षया सप्ततच्चानि भण्यन्ते । हे भगवन ! यद्यपि कथंचित्परिणामित्व लेन भेदप्रधानपर्यायार्थिकनयेन नवपदार्थाः सप्ततत्त्वानि वा सिद्धानि तथापि तैः किं प्रयोजनम् । यथैवाभेदनयेन पण्यपापपदार्थद्वयस्यान्तर्भावो जातस्तथैव विशेषाभेदनयविवक्षायामात्रवादिपदार्थानामपि जीवाजीवद्वयमध्येऽन्तर्भावे कृते जीवा 9 - जैसे स्फटिकमरिण यद्यपि स्वभाव से निर्मल है फिर भी जपापुष्प (लाल फूल) आदि के संसर्ग से लाल आदि अन्य पर्याय रूप परिणमती है (बिलकुल सफेद स्फटिक मणि के साथ जब जपाफूल होता है तब वह उस फूल की तरह लाल रंग का हो जाता है ।) स्फटिक मणि यद्यपि लाल उपाधि ग्रहण करती है फिर भी निश्चयनय से अपने सफेद निर्मल स्वभाव को नहीं छोड़ती । इसी तरह जीव भी यद्यपि शुद्धद्रव्यार्थिकनय से स्वाभाविक शुद्ध - चिदानन्दस्वभाव वाला है फिर भी अनादि कर्म-बंध रूप पर्याय के कारण राग यादि परद्रव्यजनित उपाधिपर्याय को ग्रहण करता है । यद्यपि जीव पर पर्याय रूप परिणमन करता है तो भी निश्चयनय से अपने शुद्ध स्वरूप को नहीं छोड़ता । इसी प्रकार पुद्गल द्रव्य के विषय में जानना चाहिये । परस्पर अपेक्षा सहित होना यही " कथंचित्परिणामित्व" शब्द का अर्थ है । इस प्रकार कथंचित् परिणामित्व सिद्ध होने पर, जीव और पुद्गल के संयोग परिणति से बने हुए आदि सप्त पदार्थ घटित होते हैं और वे सात पदार्थ पूर्वोक्त जीव और जीवद्रव्यों सहित हो जाते हैं इसलिये नौ पदार्थ कहे जाते हैं। अभेदन की अपेक्षा से पुण्य और पाप पदार्थ का आस्रव पदार्थ में या बन्ध पदार्थ में अन्तर्भाव करने से सात तत्त्व कहे जाते हैं । शिष्य पूछता है कि हे भगवन् ! यद्यपि कथंचित्परिणामित्व के बल भेदप्रधान पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा ६ पदार्थ तथा ७ तत्त्व सिद्ध हो गये किन्तु इनसे प्रयोन क्या सिद्ध हुआ ? जैसे अभेदनय की अपेक्षा पुण्य, पाप इन दो पदार्थों का सात पदार्थों में अंतर्भाव हुआ है उसी तरह विशेष अभेदनय की अपेक्षा से आस्रवादि पदार्थों का भी जीव, १ 'परिणमति' इति पाठान्तरं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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