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________________ ७६ आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग "फलासक्ति छोड़कर कर्म करो,' "आशारहित होकर कर्म करो,' "निष्काम होकर कर्म करो'' यह गीता की वह ध्वनि है जो कभी भुलायी नहीं जा सकती। कर्म में फलाशा आसक्ति का कारण होती है। जब तक व्यक्ति को यह आशा लगी रहेगी कि अमुक कार्य से उसे यह लाभ होगा तब तक उसकी आसक्ति उसमें बनी रहेगी। उदाहरण स्वरूप एक माली अपने बगीचे की सार-सम्हाल करता है, दिन-रात उसमें परिश्रम करता है पर वह यह फिक्र नहीं करता है कि उसके बगीचे के वृक्षों में फल और फूल लगा रहे हैं या नहीं। पर वही माली अगर वृक्षों में फलों की आशा करने लग जाता है तो वह आसक्ति कहलाती है । ऐसी आसक्ति ही बन्धन का कारण होती है। आप अपनी संतान का पालन-पोषण करते हैं, उन्हें पढ़ाते-लिखाते हैं और ब्याह-शादी आदि अपने सभी कर्तव्यों को पूरा करते हैं। किन्तु आप यह आशा रखते हैं कि हमारे पुत्र वृद्धावस्था में हमारी सेवा करेगे। बस यह सेवा कराने की इच्छा ही फलाशा है। इसी के कारण आपकी बच्चों में आसक्ति होती है। अगर आप सेवा कराने की आशा छोड़ देंगे तो आपकी आसक्ति भी छूट जायगी और पुत्रपौत्रों का बन्धन आपको बाँधेगा नहीं। कहने का अभिप्राय यही है कि व्यक्ति अगर अपने जीवन को सफल बनाना चाहता है तो वह निरन्तर कर्म-रत रहे। कर्म से पीछे नहीं हटे और उसके फल की आकांक्षा भी नहीं रखे । प्रत्येक कर्म वह अपना कर्तव्य समझ कर करे, स्वार्थ के वशीभूत होकर नहीं । जिन्होंने गीता को पढ़ा है, वे जानते हैं कि जब अर्जुन ने अपने विपक्ष में अपने ही समस्त बन्धु-बान्धनों को देखा तो वह अत्यन्त दु:खी होकर श्री कृष्ण से बोले-"अपने ही परिजनों की हत्या करके राज्य-सुख भोगने की अपेक्षा तो भिक्षा मांगकर जीवन बिता लिया जाना अधिक अच्छा है।" . इस प्रकार अर्जुन एक तरह से संन्यास लेने को ही तैयार हो गये। किन्तु उस अवसर पर कृष्ण ने उन्हें यही कहा - "तुम्हारा अधिकार केवल कर्म में है उसके फल में नहीं। तुम समत्व भाव से कर्म किये जाओ, यही सत्पुरुष का लक्षण हैं।" गीता की इस वाणी के पीछे महान रहस्य छिपा हुआ है और जो इसकी गहराई में उतर जाता है वह अपने जीवन को निश्चय ही सार्थक कर सकता है। अतः जीवन को सार्थक बनाने वाला सर्वप्रथम गुण सदैव कर्म-रत अथवा कर्तव्य-रत रहना है। ऐसा निरासक्त व्यक्ति कभी भी मोह,ममता और आसक्ति के वश में होकर सन्मार्ग से च्युत नहीं होता। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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