________________
सफलता के बहुमूल्य सूत्र
नहीं करेगा तो खाली बैठा हुआ करेगा अवश्य, अकर्मण्य वह कभी हम शारीरिक कर्म करें या मन में अपना उत्तम फल ही प्रदान करें, निकृष्ट नहीं ।
७५
अनेक प्रकार के विचार ही करता रहेगा । पर नहीं रह सकता । इसलिये हमें चाहिये कि चाहे विचारों के ताने-बाने बुनें, वे सब ऐसे हों जो
इस प्रकार अगर विचार करना है तो हम श्रेष्ठ विचार करें, और कर्म करना है तो श्रेष्ठ कर्म । इस विषय में ध्यान देने की बात एक यह है कि श्रेष्ठ कर्म करने वाला व्यक्ति अपने कर्म से सदा संतुष्ट रहता है तथा उसके फलस्वरूप किसी प्रकार के लाभ की इच्छा नहीं रखता। इसका कारण यही है कि कार्य का फल निश्चय ही किसी भी रूप में मिलता है । हीन कर्म करने पर उसका हीन फल जिस प्रकार इसी जन्म में या कर्म-बन्धन के परिणाम स्वरूप अगले जन्मों में भी मिलता रहता है । उसी प्रकार उत्तम कर्म का फल भी इसी जन्म में यश-कीर्ति या सराहना के रूप में मिल जाता है, अथवा पुण्य कर्म संचित होने पर अगले जन्मों में उच्च गति आदि के रूप में मिलता है । अतः कर्म करते समय किसी भी प्रकार की फलाशा नहीं रखनी चाहिये । जब कर्म-फल निश्चय रूप से फल प्रदान करता ही है तो उसके लिये इच्छा रखना अथवा अपने उत्तम फल को प्राप्त करके अपने हृदय में अहंकार को जगाना कहाँ की बुद्धिमानी है ? कर्म फल की आशा रखने पर यहा होता है कि कर्म किया, किन्तु उसके करने पर फल की प्राप्ति न होने से मन में क्षुब्धता, निराशा और कभी-कभी तो क्रोध का भी जन्म हो जाता है । और उसके परिणाम स्वरूप हमें जो उत्तम लाभ मिलना होता है, वह न मिलकर अप्रिय एवं निकृष्ट फल मिलने लग जाता है ।
आज का मानव सदा असंतुष्ट और दुखी देखा जाता है । इसका कारण यही है कि उसकी निगाह अपने कर्म के फल की ओर लगी रहती है । उसकी आशा, ध्येय एवं साध्य सभी कुछ फल ही होता है । फल के लिये ही वह कार्य करता है और फल के लिए ही जीता है । इस प्रकार फलाशा ही उसके जीवन में मुख्य होती. है और उसके प्राप्त न होने पर वह दुखी होता है । इसलिये गीता में कहा गया है
Jain Education International
तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर ।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः ।।
- फल की इच्छा छोड़कर निरन्तर कर्तव्यकर्म करो । जो फल की अभिलाषा छोड़कर कर्म करते हैं उन्हें अवश्य मोक्ष पद प्राप्त होता है |
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org