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________________ ७४ आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग अहमिक्को खलु सुद्धो, सणणाणमइयो सदारूवी । ण वि अस्थि मज्झ किंचिवि, अण्णं परमाणमित्तपि ॥ -समयसार ३८ अर्थात्-. "मैं तो शुद्ध ज्ञान-दर्शन स्वरूप सदाकाल सदाकाल अमूर्त एवं शुद्ध शाश्वत तत्त्व हूँ, परमाणुमात्र भी अन्य द्रव्य मेरा नहीं है।' वह यह भी विचार करता है एगो मे सासदो अप्पा, णाण दंसण लक्खणो। सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोगलक्खणा ।। -- नियमसार ६९ -ज्ञान-दर्शन स्वरूप मेरी आत्मा ही शाश्वत तत्त्व है, इससे भिन्न जितने भी राग-द्वेष, मोह-ममता, लोभ-आसक्ति तथा कषायादि भाव हैं, वे सब संयोगजन्य बाह्यभाव हैं, अतः मेरे नहीं हैं। इस प्रकार चिंतन करने वाला भव्य प्राणी आत्मा का ज्ञान कर लेता है और जब आत्मा का ज्ञान कर लेता है तो उसे अभी बताए गये विकारी और बाह्य भावों से उदासीन बनाकर ऐसे श्रेष्ठ भाव अपने मानस में पैदा करता है, जिनसे आत्मा कर्म-बन्धनों से रहित होकर अपने शुद्ध एवं पूर्ण ज्योतिर्मान रूप में आ जाय । आत्मा का कर्मों से सर्वथा मुक्त हो जाना ही उसके लिये श्रेष्ठतम एवं सर्वोच्च स्थिति को पा लेना है । कहा भी है ___ अप्पो वि य परमप्पो कम्मविमुक्को य होई फुडं। -आत्मा जब कर्म-मल से मुक्त हो जाता है, तो वह परमात्मा बन जाता है। तो बंधुओ, आप समझ गये होंगे कि आत्मा को उसके सही स्वरूप में लाने के लिये या परमात्मा बनाने के लिये राग, द्वेष, मोह, आसक्ति आदि समस्त विकारी भावों से दूर रहना अथवा उनका त्याग करना आवश्यक ही नहीं वरन अनिवार्य है। पर इनसे दूर किस प्रकार रहा जाय और कौन से उत्तम गुणों को अपनाकर जीवन को सार्थक बनाया जाय, अब हमें इसी पर विचार करना है । और इसके लिये मैं कुछ मुख्य गुण आपके समक्ष रखूगा। कर्म-रत रहना इस संसार का प्रत्येक व्यक्ति प्रत्येक क्षण कुछ न कुछ करता रहता है। या - तो वह शारीरिक श्रम करता है या मानसिक श्रम । अर्थात् अगर वह शरीर से श्रम Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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