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________________ सफलता के बहुमूल्य सूत्र ७३ भिन्न और निराला तत्व हूं जो कि आत्मा में रहे हुए शाश्वत सुख के असीम सागर में रमण करता हूँ। यह शरीर और सम्पूर्ण सांसारिक पदार्थ बाह्य हैं जो संयोग के द्वारा प्राप्त होकर अपने प्रबल आकर्षणों से मुझे धोखे में डाले हुए हैं। इनके प्रति मोह और आसक्ति के कारण अब तक मैंने अपना चिदानन्द चेतनमय रूप नहीं पहचान पाया और इस ‘अन्यत्व भावना के अभाव में अनन्त काल से नाना योनियों में भटकता हुआ घोर कष्ट उठाता रहा।" __ तो बंधुओ ! मैं आपको यह बता रहा था कि अज्ञानी पुरुष शरीर और आत्मा को एक मानकर धन-वैभव, शारीरिक सुख और कीर्ति-प्रतिष्ठा आदि प्राप्त कर लेने में ही जीवन की सफलता मान लेते हैं। किन्तु ज्ञानी और विवेकी पुरुष ऐसा नहीं करते । वे इस शरीर को पिंजरा और आत्मा को इसमें कैद हंस की उपमा देते हैं । पिंजरा और हंस अलग-अलग होते हैं तथा कभी भी पिंजरे का द्वार खुला पाकर जिस प्रकार हंस उड़ जाता है, उसी प्रकार आत्मा रूपी हंस भी इस शरीर रूपी पिंजरे से अचानक ही निकल जाता है । कहने का अभिप्राय यही है कि जीवन की सफलता के सम्बन्ध में विचार करते समय हमें पहले ही वह बात भली-भांति जान लेनी चाहिये कि आत्मा अमर है पर जीवन अमर नहीं है । इस जीवन को सुख पहुँचाने के लिये कितने भी प्रयत्न क्यों न किये जायँ वे सब सुख शरीर के साथ ही समाप्त हो जाते हैं। किन्तु अगर हम आत्मा को सुख पहुँचाने का प्रयत्न करें तो वह शाश्वत होगा यानी इस जीवन के बाद भी वह आत्मा को अपना श्रेष्ठ फल प्रदान कर सकेगा ? . अब हमारे सामने प्रश्न यह है आत्मा को सुखमय अर्थात् दुःखमुक्त किस प्रकार किया जा सकता है तथा उसके साधन क्या-क्या हैं। आत्म-दर्शन जो मुमुक्षु व्यक्ति अपने जीवन में सफल बनाना चाहता है, वह सर्वप्रथम वीतराग वचनों पर श्रद्धा रखकर तथा सद्गुरुओं के उपदेशों को सुनकर यह विश्वास करता है कि हमारा शरीर और हमारी आत्मा सर्वथा भिन्न है। शरीर के विषय और हैं तथा आत्मा के विषय और हैं, शरीर को सुख पहुँचाने वाले साधन दूसरे हैं तथा आत्मा को सुख पहुंचाने वाले दूसरे । इस प्रकार जान लेने पर वह आत्म-दर्शन अथवा आत्मा के सही स्वरूप को समझने का प्रयत्न करता है । आत्मद्रष्टा विचार करता है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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