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जन्मदिन कैसे मनाया जाय ?
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मेरे कहने का आशय यही है कि हमारी आत्मा ही हमें जन्म-मरण के दुखों में डालती है और आत्मा ही शाश्वत सुख की प्राप्ति कराती है, आवश्यकता केवल यही है कि इसे शुद्ध विचारों की ओर प्रवृत्त किया जाय ।
आप उत्तराध्ययन का पारायण करते समय पढ़ते होंगे -
अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य । अप्पा मित्तममित्तं च दुप्पट्ठिय सुपट्ठिओ ॥
- आत्मा ही सुख-दु:ख का कर्ता व भोक्ता है । सदाचार में प्रवृत्त आत्मा मित्र के तुल्य है और दुराचार में प्रवृत्त होने पर वही शत्रु है ।
अब प्रश्न यह उठता है कि सदाचार में प्रवृत्त किस प्रकार हुआ जाय ? इसका उत्तर यही है कि मुमुक्षु व्यक्ति जिन वचनों में श्रद्धा रखे, सद्गुरुओं के उपदेशों को आत्मसात् करे तथा सद्गुणों का संचय करने का प्रयत्न करता रहे।
किन्तु उसके लिये तोते के समान शास्त्रों का पारायण कर लेना, लोकदिखावे के लिये स्थानक में जाकर किसी तरह प्रवचन सुन लेना और महापुरुषों की जन्मतिथियाँ मना लेना ही काफी नहीं है । आप प्रतिवर्ष भगवान महावीर की जयन्ती मनाते हैं और भी वर्ष में अनेक महापुरुषों की जयन्तियाँ मनाते समय जुलूस निकालते हैं, गाना-बजाना करते हैं और स्टेज पर खड़े होकर लच्छेदार भाषा में उनके गुणगान करते हैं । किन्तु केवल गुणगान करने से क्या हो सकता है ?
आप हलवाइयों की गली में से निकलें और प्रत्येक मिठाई के नाम-धाम, गुण और मधुर स्वाद के विषय में कहते चले जायँ तो आपका पेट भर जायगा ? या कपड़ा-बाजार में जाकर नाना प्रकार के कपड़ों की कीमत और उनके मोटे और महीनपने की आलोचना या प्रशंसा करें तो क्या वह आपके शरीर पर आ जायगा ? नहीं, कपड़ा खरीदकर पहनने से आपका शरीर ढकेगा और मिठाइयाँ खाने पर ही पेट भरेगा । इसी प्रकार महापुरुषों के केवल गुणगान करने से ही अपनी आत्मा गुणवान नहीं बन जाएगी, अपितु उन गुणों को कहने की अपेक्षा आचरण में उतारने पर ही आप गुणवान कहलायेंगे और उन गुणों के द्वारा अपनी आत्मा का कल्याण कर सकेंगे ।
इसलिये बंधुओ, आप जयंतियाँ या जन्मदिन मनाने और महा-मानवों के गुणानुवाद करने में ही न रह जायँ बल्कि उन्हें जीवन में उतारने का प्रयत्न करें । चिन्तन और मनन करें कि उन महामानवों ने अपने
आत्म-कल्याण के लिये
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